09 अगस्त 2023

संसद बना विपक्ष का प्रचार मंच

लोकसभा में मंगलवार को विपक्ष द्वारा मणिपुर हिंसा के सन्दर्भ में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू हुई. यह चर्चा आठ अगस्त से शुरू होकर दस अगस्त तक चलेगी. इसी दिन प्रधानमंत्री अपना जबाव देंगे. कांग्रेस के गौरव गोगोई द्वारा लाये गए इस अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की शुरुआत उन्होंने करते हुए मणिपुर हिंसा पर डबल इंजन सरकार को पूरी तरह विफल बताया. उनके द्वारा सवाल किए कि प्रधानमंत्री मणिपुर क्यों नहीं गए? मणिपुर के मुख्यमंत्री को क्यों नहीं हटाया गया? इस अविश्वास प्रस्ताव से मोदी सरकार को कोई ख़तरा नहीं है. लोकसभा में बहुमत के लिए 272 सांसदों की ज़रूरत है. यहाँ एनडीए के पास 331 सांसद हैं, जिसमें अकेले भाजपा के पास 303 सांसद हैं. इसका सीधा सा अर्थ है कि भले ही सभी ग़ैर-एनडीए दल एक साथ आ जाएँ फिर भी केंद्र सरकार के पास अविश्वास प्रस्ताव से बचने के लिए पर्याप्त संख्या है. हालांकि कांग्रेस के इस प्रस्ताव का समर्थन करने वाले नवगठित गठबंधन का संख्याबल से कोई लेना देना नहीं है उनका एकमात्र उद्देश्य मणिपुर हिंसा पर प्रधानमंत्री मोदी को सदन में बोलने के लिए मजबूर करना है. मणिपुर में इसी तीन मई से हिंसा हो रही है, जिसमें डेढ़ सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. 




लोकसभा में पक्ष और विपक्ष की संख्या स्पष्ट रूप से दिखने के बाद भी विपक्ष के द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने पर भाजपा सांसद द्वारा सोनिया गांधी पर तंज कसते हुए कहा गया कि उनके लिए अविश्वास प्रस्ताव का एकमात्र मूलमंत्र है, बेटे को सेट करना और दामाद को भेंट करना. ऐसा तंज कसने के सन्दर्भ में यह भी समीचीन है कि 136 दिन बाद राहुल गांधी की लोकसभा में वापसी इसी सात अगस्त को हुई है. मोदी सरनेम मामले में सजा के बाद चली गई उनकी संसद सदस्यता को लोकसभा अध्यक्ष ने फिर से बहाल कर दिया है. ऐसे में संसद में राहुल गांधी का दोबारा आने को कांग्रेस तथा उनके सहयोगी दलों द्वारा जनता के बीच इस तरह से प्रस्तुत किया जाने का विचार हो सकता है, जिससे लगे कि वे सड़क से लेकर संसद तक लगातार संघर्ष कर रहे हैं.  विपक्ष द्वारा लाया गया अविश्वास प्रस्ताव राहुल गांधी के संसद में दोबारा आने से संदर्भित इसलिए भी लगता है क्योंकि उनके आने और अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने की तिथियों में समानता दिख रही है.  


यद्यपि राहुल गांधी की सदस्यता बहाल होने के बाद विपक्षी खेमा जोश में है तथापि इसी मानसून सत्र में अन्य कई विधेयकों के पारित होने के बीच दिल्ली सेवा बिल के पारित होने ने लोकसभा में विपक्ष के संख्याबल की वास्तविकता से परिचय करवा दिया है. चूँकि ना तो केंद्र सरकार को कोई खतरा है और ना ही विपक्ष संख्याबल के हिसाब से इस हैसियत में है कि सरकार को किसी भी तरह की परेशानी में डाल सके ऐसे में विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाने की अपनी मजबूरी को बताना पड़ा कि इसके द्वारा मणिपुर मामले पर प्रधानमंत्री का मौनव्रत तोड़ा जा सके. सोचने वाली बात ये है कि क्या मात्र प्रधानमंत्री का जबाव सुनने भर के लिए विपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाया गया होगा? यदि गंभीरता से आकलन किया जाये तो प्रस्ताव लाने की यह रणनीति अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए की जाने वाली कवायद है. इसके द्वारा एक तरफ राहुल गांधी को स्थापित करने वाला कदम भी उठाया जा रहा है, साथ ही नवगठित विपक्षी गठबंधन की मजबूती को भी जाँचा-परखा जा रहा है.


जिसे भी राजनीति की, संसद में संख्याबल की जरा सी भी जानकारी होगी उसे स्पष्ट रूप से समझ आएगा कि ये सारी कवायद विशुद्ध रूप से दिखावटी संघर्ष को दिखाने वाली है. देखा जाये तो कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल बजाय किसी तरह के सार्थक संघर्ष करने के संसद को खेल का मैदान बनाने के साथ-साथ राहुल गांधी को, अपने आपको प्रचारित-प्रसारित करने का माध्यम बनाने में लगे हैं. यदि विपक्षी दलों को वाकई संघर्ष करना है, जनता को दिखाना है तो उन्हें आपातकाल का दौर याद करना होगा. तब सत्तारूढ़ कांग्रेस के पास संख्याबल आज के सत्ताधारी गठबंधन से भी बहुत ज्यादा था. पाँचवीं लोकसभा के चुनाव वर्ष 1971 में संपन्न हुए. यह स्वतंत्र आजाद भारत का पाँचवाँ आम चुनाव होने के साथ-साथ देश का पहला मध्यावधि चुनाव भी था. इसमें कुल 520 लोकसभा सीटों पर चुनाव हुए जिसमें से 352 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. यहाँ ध्यान देने योग्य एक तथ्य यह भी है कि इस चुनाव में कुल 54 पार्टियों ने अपना भाग्य आजमाया था. इसमें सीपीआई (एम) 29 सांसदों के साथ दूसरे नंबर पर रही जबकि मोरारजी देसाई की कांग्रेस (ओ) 16 सांसदों के साथ तीसरे नंबर का दल था.


उस दौर में सरकार ने न केवल संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग किया बल्कि प्रशासनिक बल का भी दुरुपयोग किया. विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करने जबरन जेलों में डाला गया. अनावश्यक मुकदमेबाजी शुरू हुई. ऐसे तानाशाही भरे, क्रूरता भरे दौर में भी विपक्ष ने हार नहीं मानी. उसके नेताओं द्वारा बातों के बताशे नहीं फोड़े गए. जनता के सामने अपना संघर्ष दिखाने को संसद में शाब्दिक दुर्व्यवहार नहीं किया गया, टीवी, मीडिया का सहारा नहीं लिया गया, न आँख मारी गई, न फ़्लाइंग किस उछाली गई. उस समय के विपक्ष ने संख्याबल में कम होने के बाद भी सम्पूर्ण देश की जनता को सत्ताधारी दल के विरुद्ध अपनी ताकत बना लिया था. व्यावहारिक और वास्तविक संघर्ष उसी दौर में देखने को मिला था. उसी का परिणाम था कि जबकि समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण विपक्ष ने चुनाव लड़ा और 298 सीटें जीतीं. वर्ष 1977 की जनवरी को इंदिरा गांधी ने अचानक से आकाशवाणी के जरिए देश में आम चुनाव की घोषणा की. मात्र तीन दिन, 16 मार्च से 19 मार्च के बीच चुनाव संपन्न हुए. इस लोकसभा चुनाव में जनता ने विपक्ष के संघर्ष का साथ देते हुए कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया. कांग्रेस गठबंधन को मात्र 153 सीटें ही मिलीं.


यहाँ संसद को अपने नेताओं का, अपने प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाये बैठे विपक्षी दलों को यह तथ्य भी स्मरण रखना होगा कि संसद जनता के धन से संचालित हो रही है, जिस पर एक दिन का खर्च कई करोड़ रुपये आता है. संसद की कार्यवाही सामान्यतया एक सप्ताह में पाँच दिन चलती है. प्रतिदिन की कार्यवाही सात घंटे चलाने की परम्परा बनी हुई है. एक रिपोर्ट के अनुसार संसद में एक घंटे का खर्च डेढ़ से दो करोड़ रुपए बैठता है. ऐसे में यदि एक दिन का आकलन किया जाये तो यह खर्च बढ़कर बारह-तेरह करोड़ रुपए से अधिक होता है. सोचा जा सकता है कि कैसे देश के धन का अपव्यय उसी स्थान से किया जा रहा है जहाँ देश के नीति-नियंता विराजमान हैं. विपक्षी दलों को अपने व्यवहार में, अपने चाल-चलन में सकारात्मकता लानी होगी. वातानुकूलित सदन में बैठकर महज प्रधानमंत्री के मौनव्रत को तुड़वाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव को लाने, राहुल गांधी को संघर्षशील नेता के रूप में स्थापित करने जैसे संकुचित कदमों को छोड़ना होगा. उनको अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी जनता के बीच जाकर करनी चाहिए. यदि विपक्षी दल वाकई मणिपुर मामले में संवेदित है तो वह उस हिंसा को लेकर वास्तविकता में जनता के बीच उतरे. सरकार की गैर-जिम्मेवारी को बुलंद आवाज़ में उठाये. सड़कों से लेकर जेलों तक आंदोलित रूप में नजर आये. 






 

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