04 जून 2023

नकारात्मकता की तरफ बढ़ता समाज

किसी भी समाज में सुरक्षा व्यवस्था एक-एक नागरिक के पीछे सुरक्षाकर्मी तैनात नहीं किया जा सकता है. इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि समाज में नागरिकों के बीच समन्वय, सहयोग के चलते एक-दूसरे की सुरक्षा के प्रति नागरिकों को सजग, सचेत रहना चाहिए. उनके बीच इस तरह का तालमेल, जागरूकता, विश्वास होना चाहिए कि कोई भी अपराधी खुलेआम अपराध करने से घबराए. बावजूद इसके सुरक्षा व्यवस्था से, प्रशासन से ये तो अपेक्षा की ही जाती है कि अपराधियों में कानून का इतना भय हो कि वे अपराध करने के पहले कई बार सोचें. सुरक्षा व्यवस्था अथवा कानूनी प्रक्रिया इस तरह की न हो कि कोई भी अपराधी बिना किसी भय के वारदात को अंजाम देता फिरे. विगत दिनों दिल्ली में घटित खुलेआम नाबालिग लड़की के जघन्य हत्याकांड के द्वारा अपराधी ने उक्त दोनों स्थितियों को आईना दिखा दिया. पुलिस, कानून से बिना घबराए उस युवक द्वारा खुलेआम चाकू, पत्थर के अनेकानेक वार कर एक लड़की को मौत की नींद सुला दिया. भीड़ भरे इलाके में, लोगों की आवाजाही के बीच इस तरह की आपराधिक घटना को अंजाम देने वाले अपराधी के दिमाग में किस तरह से समाज के वर्तमान ढाँचे का खाका बना होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं.

 

खुलेआम आपराधिक घटना को अंजाम दिए जाने की ये कोई पहली घटना नहीं है और न ही सड़क चलते लोगों के द्वारा, आसपास के नागरिकों द्वारा मूक दर्शक बने रहने की. इससे पूर्व घटित अन्य आपराधिक वारदातों में भले ही इस तरह की जघन्यता न रही हो मगर खुलेआम किसी भी अपराधी का अपराध करना, आसपास के नागरिकों द्वारा हस्तक्षेप न करना, अपराधी को न रोकना सामाजिक व्यवस्थाओं की, सुरक्षा व्यवस्था की पोल ही खोलता है. इस घटना के बाद से चारों तरफ यही चर्चा हो रही है कि घटनास्थल के पास से गुजरते नागरिकों ने उस युवक को रोकने की कोशिश नहीं की? एक पल को रुक कर घटनास्थल के आसपास के नागरिकों द्वारा अपराधी को वारदात करने से रोकने की कोशिश न करने की चर्चा करने के पहले क्या इस बात पर विचार किया गया कि आखिर उस युवक के भीतर इतना दुस्साहस कहाँ से, कैसे आया कि वह ताबड़तोड़ वार करता रहा? आखिर उसे आसपास के लोगों का, पुलिस का, कानून का डर क्यों नहीं था

 



यदि हम सामाजिक ढाँचे को, उसके ताने-बाने को, पारिवारिक व्यवस्था को, प्रशासनिक स्थिति को, सांस्कृतिक वातावरण को देखें तो बहुत कुछ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगेगा. चारों तरफ एक तरह की विघटन जैसी स्थिति, विध्वंस जैसे हालात दिखाई देते हैं. यदि हम पारिवारिक व्यवस्था पर ही दृष्टिपात करें तो अब एक-एक सदस्य खुद में एक परिवार नजर आने लगा है. हर एक व्यक्ति की अपनी पहचान निर्मित कर दी गई है. अब अभिभावक और संतान वाले सम्बन्ध की अपेक्षा उनमें दोस्ताना सम्बन्ध देखने को कहा जाने लगा है. जिस बच्चे के सारे काम-काज उसके माता-पिता के द्वारा ही संपन्न हो रहे हों, उसे भी स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाकर उसकी भी इज्जत-बेइज्जती का निर्धारण किया जाने लगा है. कॉन्वेंट कल्चर के चलते अभिभावकों में अब बच्चों से उनके दोस्तों का परिचय जानने से ज्यादा उत्सुकता उनके अफेयर के बारे में रहने लगी है. ऐसी स्थिति में जबकि परिवार के भीतर ही अनेक घर बने दिखाई देने लगे हों, एक-एक व्यक्ति खुद में एक निजता लेकर रहने लगा हो तो कैसे सोचा जा सकता है कि वह अपनी बातों को अपने परिजनों के साथ बाँटता होगा?

 

ऐसी निजता का एक सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू ये है कि अभिभावकों को जानकारी ही नहीं होती है कि उनके बच्चों की दोस्ती किससे है? कौन-कौन उसके दोस्त हैं? उनके संग किस तरह की जीवन-शैली उनकी संतानों द्वारा अपनाई जा रही है? देर रात तक जागने का कारण पूछा नहीं जा सकता. देर रात घर आने का कारण नहीं जाना जा सकता. आखिर बच्चों का भी अपना निजी व्यक्तित्व है, उनकी निजता है, जिसे पार करने का अधिकार अभिभावकों को नहीं है. ऐसे में बच्चों की संगत की जानकारी अभिभावकों को नहीं हो पाती है और कई बार न चाहते हुए भी, अनजाने में ही बहुत से बच्चे गलत राह पर, गलत संगत में पड़ जाते हैं.

 

इसके अलावा आजकल ऐसा माहौल बना हुआ है जहाँ बच्चों को किसी भी तरह से सामूहिकता का पाठ नहीं पढ़ाया जा रहा है. अभिभावक धन कमाने की मशीन बने हुए हैं और वे अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा अंक लाने की मशीन बनाने में लगे हैं. अंकों की अंधी दौड़, मल्टीनेशनल कम्पनियों के बड़े-बड़े पैकेज की तृष्णा के चलते बच्चों को बाहरी दुनिया से संपर्कविहीन कर दिया जाता है. उनको न पड़ोसियों से संपर्क रखना आता है, न वे अपने रिश्तेदारों के साथ घुलमिल पाते हैं. इस कारण से सामाजिक व्यवस्था में भी उनका तालमेल नहीं बैठ पाता है. ये समझने वाली बात है कि इस तरह के माहौल में परवरिश पाने वालों के लिए या परवरिश करने वालों के लिए परिवार के नाम पर खुद के गिने-चुने तीन-चार लोग ही होते हैं. उन चंद अपनों के अलावा बाकी सभी पराये होते हैं और ऐसे लोगों की मानसिकता में कूट-कूट कर भर दिया जाता है कि सिर्फ अपने लिए जीना है, दुनिया मतलबी है, उसके चक्कर में पड़ने पर अपने कैरियर का, अपने समय का, अपनी संपत्ति का ही नुकसान करना है. ऐसे में किसी भी विषम परिस्थिति में उनके द्वारा सहयोग, समन्वय, सहायता जैसे कदम स्वतः ही नहीं उठते हैं.

 

पारिवारिक वातावरण के साथ-साथ जिस तरह से मीडिया में प्रशासन को, पुलिस को बुरी तरह से नाकारा दिखाया जाने लगा है; उसकी छवि को किसी आतातायी से कम नहीं दिखाया जाता है; माफिया, गुंडों को जिस तरह से हीरो बनाकर प्रस्तुत किया जाने लगा है उसने भी प्रशासन का डर अपराधियों में समाप्त किया है और इसके उलट जनता में भय भर दिया है. किसी विषम परिस्थिति में किसी व्यक्ति की सहायता करना खुद को कानूनी दांव-पेंचों में फँसाना समझा जाने लगा है. इस तरह की नकारात्मक छवि के साथ कैसे कोई अपराधी कानून से, पुलिस से डरेगा? स्पष्ट है कि जब तक समाज में जब तक नकारात्मकता को प्रभावी ढंग से आरोपित किया जाता रहेगा, तब तक वारदातों की जघन्यता को रोका नहीं जा सकता है. विघटन की स्थिति को रोकना होगा, परिवारों को फिर से घुलने-मिलने का वातावरण सृजित करना होगा. प्रशासन को भी अपनी छवि की सकारात्मकता पर ध्यान देना होगा. संभव है कि ऐसे छोटे-छोटे प्रयासों से आने वाले कल में बड़े सार्थक परिवर्तन देखने को मिलें.







 

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