भारतीय समाज में
फिल्मों का अपना ही महत्त्व है. किसी समय जबकि आज की तरह न रंगीन फ़िल्में हुआ करती
थीं और न ही बोलने वाली फ़िल्में तब भी भारतीय दर्शकों ने फिल्मों का भरपूर आनंद
उठाया था. समय के साथ-साथ तकनीकी बदलाव हुए और न केवल बोलने वाली फ़िल्में बननी शुरू
हुईं बल्कि रंगीन फिल्मों ने भी दर्शकों के बीच आना शुरू किया. फिल्मों में जहाँ
तकनीकी रूप से परिवर्तन हुए वहीं उनके विषयों में भी जबरदस्त तरीके से बदलाव देखने
को मिले. किसी समय धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, देशभक्ति आदि विषयों की फिल्मों
के निर्माण पर ज्यादा जोर दिया जाता था. कालांतर में इनमें वास्तविकता का पुट दिया
गया, प्रेम कहानियों का आना हुआ और उसी के पीछे-पीछे आपराधिक
पृष्ठभूमि वाली फिल्मों ने जोर पकड़ना शुरू किया. सीधे-साधे, मासूम से नायक की छवि
एंग्री यंग मैन में बदल गई.
समय के साथ
फिल्मों के विषय में बदलाव को दर्शकों की रुचि बताया जाता रहा. हिंसा, अपराध, माफिया, अंडरवर्ल्ड आदि को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाया जाने लगा. आपराधिक
पृष्ठभूमि के चरित्रों को नायक की तरह से प्रस्तुत किया जाने लगा. कहते हैं कि फिल्में
समाज का आईना होती हैं. इस आईने ने न केवल सच दिखाना शुरू किया बल्कि अशालीन रूप
में दिखाना शुरू कर दिया. नग्नता, गालियाँ, अश्लीलता अपने चरम पर प्रदर्शित की जाने लगी. फिल्मकारों द्वारा कहा गया
कि इस तरह के फिल्मांकन द्वारा समाज का वास्तविक सच दिखाया जा रहा है. फिल्मकार
अपनी ऐसी फिल्मों के द्वारा जनता को सोशल मैसेज देने का दावा करने लगे. इसी
सामाजिक सन्देश देने के पीछे समाज की, राजनीति की असलियत दिखाने के लिए राजनीतिक
फिल्मों का निर्माण भी किया जाने लगा. ऐसा नहीं है कि ऐसी फिल्मों का निर्माण
इक्कीसवीं सदी की घटना है. आँधी फिल्म और उसके साथ घटित राजनीति किसी भी
फिल्म-प्रेमी से छिपी नहीं है. ऐसी कोई एक-दो फ़िल्में नहीं बल्कि अच्छी-खासी सूची
है.
किसी समय
इक्का-दुक्का फिल्मों को लेकर राजनीति होती थी, इधर देखने में आ रहा है कि लम्बे समय से लगातार कई फ़िल्में
राजनीति का शिकार हुई हैं. इन फिल्मों को लेकर जमकर राजनीति की जा रही है. कभी कश्मीर
फाइल्स, कभी द
केरला स्टोरी, कभी प्रधानमंत्री पर बनी बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री. इनके अलावा
देखा जाये तो पद्मावत, बाजीराव मस्तानी, पीके,
गैंग्स ऑफ़ बासेपुर, पठान आदि ऐसी फ़िल्में रहीं हैं जिनको लेकर खूब राजनीति
हुई, खूब विरोध हुआ. इधर
लम्बे समय से ऐसा लग रहा है जैसे फिल्मों का रिलीज होना सिर्फ बायकॉट के लिए ही
होता है. इसके पीछे सोशल मीडिया को जिम्मेवार माना जाता है मगर यही अंतिम और पूरा
सच नहीं है. सोशल मीडिया के आने के बरसों पहले से भी बॉलीवुड फ़िल्में बायकॉट का
शिकार हो चुकी हैं. नील आकाशेर नीचे देश की पहली ऐसी फिल्म थी जिस पर
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने प्रतिबन्ध लगाया था. तीन महीने तक विवाद
के बाद यह फिल्म 1958 में रिलीज हुई थी. इस फिल्म में राजनीति का उपयोग गलत तरीके से होते दिखाया गया था. देखा
जाये तो बॉलीवुड में ऐसे मुद्दों पर अनेक फिल्में बनी हैं जिनमें न केवल राजनीति
को गलत ढंग से दर्शाया गया है बल्कि प्रशासनिक मशीनरी को भी जबरदस्त तरीके से
भ्रष्ट दिखाया गया है.बहुत सी फ़िल्में ऐसी भी बनी हैं जिनमें राजनीतिक उलटफेर को
दिखाया गया है. ऐसी फिल्मों का भी विरोध हुआ है मगर इधर फिल्मों के विरोध के पीछे
धर्म, संस्कृति, समाज आदि प्रमुखता से है. इसके साथ-साथ समाज
की सच्चाई को दिखाने वाली फिल्में भी राजनीति का, विरोध का
शिकार हुई हैं.
ऐसी फ़िल्में जो
समाज की वास्तविकता को लेकर बनती हैं, उनके विषयों में राजनीति तलाशने के पीछे राजनैतिक मकसद तो दिखाई देते ही
हैं, जनभावनाओं का समाहित होना भी होता है. राजनीति ही एक
ऐसा विषय है जो साक्षर से लेकर निरक्षर तक पूर्ण बहस के,
विमर्श के साथ उपस्थित होता है. यही कारण है कि राजनीति से जुड़े विषयों पर जब भी
फिल्में बनी हैं तो तो दर्शकों ने उनके साथ खुद को सहजता से जोड़ने का प्रयास किया
है. इसी कारण से बहुत बार ऐसा होता है कि जनभावनाएँ सकारात्मक रूप से जुड़ने के
साथ-साथ नकारात्मक रूप से भी जुड़ती हैं. इस नकारात्मकता में वर्तमान दौर में कुछ
ज्यादा ही वृद्धि हुई है. देखा जाये तो इसके पीछे किसी न किसी रूप में राजनैतिक
हस्तक्षेप भी रहा है.
राजनैतिक
हस्तक्षेप की सम्भावना होने के बाद भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि फिल्मों के बायकॉट
करने के पीछे सिर्फ राजनीति ही काम करती हो. अनेक बार समाज के वास्तविक विषयों को
लेकर बनी फिल्मों के प्रस्तुतीकरण को लेकर भी विवाद होता है. कई बार फिल्मों के
माध्यम से कड़वी सच्चाई भी सामने आती है, ऐसी स्थिति के कारण भी विवाद का जन्म होता है. ऐसे में
फिल्मकारों के लिए यह बहुत ही जिम्मेवारी भरा काम होता है कि वे ऐसे विषयों पर, जिनमें कि समाज की वास्तविकता को दिखाया जा रहा हो,
किसी चरित्र को उभरा जा रहा हो, समाज के किसी सच को दिखाया
जा रहा हो, संवेदनशील होने की आवश्यकता है. हाल के दिनों में
आई दो फिल्मों- कश्मीर फाइल्स और द केरला स्टोरी को इस रूप में
सहजता से देखा जा सकता है. दोनों फिल्मों के द्वारा समाज ने देश के उस सच को देखा
जिसे उसने अभी तक सिर्फ सुन रखा था. ऐसे में जनभावनाओं में परिवर्तन आना स्वाभाविक
सी बात है.
यहाँ फिल्मकारों
को ये समझने की आवश्यकता है कि ऐसी फ़िल्में जिनमें समाज का सच, उसकी वास्तविकता दिखाई जा रही हो, वे महज मनोरंजन के लिए नहीं हैं. उनका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा धन
कमाने का नहीं होना चाहिए. उनको भी जानकारी होती है कि जनभावनाओं का विरोध कई बार
फिल्मों को हिट करवाता है, ऐसे में अक्सर उनके द्वारा
जानबूझकर इस तरह का फिल्मांकन, गीत का प्रस्तुतीकरण किया
जाता है कि फिल्म के द्वारा विवाद उत्पन्न हो. ऐसी स्थिति में उनका प्रयास हो कि
जनभावनाएँ नकारात्मक रूप में न उभरने पायें. ऐसे लोग,
जिन्होंने उस कड़वे सच को भोगा होता है, उनके लिए उसे देख
पाना, सहन कर पाना संभव नहीं होता है और वे लोग जो उस सच को
फिल्मांकन के द्वारा देख रहे होते हैं, वे भी संवेदित होकर
विरोध की स्थिति में आ जाते हैं. ऐसे में जहाँ एक तरफ फिल्मकारों को संयम बरतने की
आवश्यकता है वहीं दूसरी तरफ दर्शकों को, राजनैतिक पृष्ठभूमि
से जुड़े लोगों को भी संवेदित होने की आवश्यकता है कि वे आक्रोश में, विरोध में ऐसा कदम न उठायें जो जनमानस को नुकसान पहुँचाये.
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