सनातन संस्कृति में मोक्ष की अवधारणा को लेकर
बहुत सी बातें कही गईं हैं. जीव के जीवन-मरण से मुक्ति का मार्ग मोक्ष को स्वीकारा
गया है. इसी की प्राप्ति के लिए ऐसा माना जाता है कि तमाम सारी प्रजातियों में
मनुष्य जन्म मिलना सौभाग्य की बात होती है और इसी जन्म में ऐसे कर्म कर लेने चाहिए
कि व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त हो जाये. मोक्ष प्राप्ति की अवधारणा की सहज
स्वीकार्यता के कारण ही मनुष्यों को सत्कर्म करने के प्रति प्रेरित किया जाता है.
उनको सभी प्रकार की बुराइयों से दूर रहने का प्रवचन दिया जाता है. इसी के साथ-साथ
उनको भगवान की भक्ति करने, परोपकार करने, ईश्वर का नाम लेने की सलाह दी जाती है.
यहाँ एक बात समझने वाली ये है कि क्या मोक्ष की
लालसा में किये जाने वाले सद्कार्य लालच की श्रेणी में नहीं आते हैं. जिस सनातन
संस्कृति में मोक्ष की अवधारणा है, उसी में कहा गया है कि
किसी फल की आशा में कार्य नहीं करना चाहिए. यहाँ तो ईश्वर का नाम, भगवान-भक्ति, परोपकार आदि मोक्ष की कामना के साथ
किये जा रहे हैं. देखा जाये तो यह विशुद्ध लालच ही है. ऐसे में एक लालच के द्वारा
मोक्ष की प्राप्ति कैसे संभव है? यहीं एक सवाल और मन में
उभरता है कि आखिर मोक्ष की प्राप्ति किसके लिए, किसलिए? क्या किसी को अपने जन्म के पहले के जन्मों या जन्म का भान है कि उसे कष्ट
मिले थे या सुख? यदि ये मान लिया जाये कि बहुत से लोग अपने
कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर गए होंगे तो क्या उनको इसका एहसास होगा कि वे जन्म-मरण
से मुक्ति पा गए हैं? वे अब मोक्ष प्राप्त कर गए हैं?
एक पल को सारी बातों को दरकिनार करते हुए मान
लिया जाये कि सभी जीवों द्वारा किसी भी तरह का बुरा काम, गलत
कर्म करना बंद कर दिए गए. सभी अपनी-अपनी तरह से ईश्वर की भक्ति में लीन रहने लगे, परोपकार करने लगे. ये भी मान लिया जाये कि सभी को अपने इन्हीं सद्कर्मों
से मोक्ष मिल गया तो क्या ये प्रकृति के विरुद्ध कार्य नहीं है? क्या इससे सृष्टि सञ्चालन की व्यवस्था अवरुद्ध नहीं हो जाएगी? ऐसा इसलिए कि यदि सभी जीवों को मोक्ष मिल जायेगा,
सभी को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी तो फिर इस सृष्टि में जन्म किसका
होगा? इस प्रकृति का सञ्चालन कैसे होगा?
संभव है कि हम अल्पज्ञानी की समझ से बाहर हों
उक्त बातें किन्तु मन की जिज्ञासा को शांत करना चाहते हैं.
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