11 जुलाई 2022

परेशानी का कारण बनता मोबाइल : 2200वीं पोस्ट

कई महीनों से हमारा अपने साथ एक तरह का द्वंद्व चल रहा है. ये द्वंद्व मोबाइल के उपयोग को लेकर मचा हुआ है. बहुत बार मोबाइल सुविधाजनक से ज्यादा असुविधाजनक महसूस होता है. दूसरी तरफ वाले को न समय की चिंता करनी है न ही स्थान की. उसे बस अपने काम से मतलब होता है. आप कितने व्यस्त हैं, कहाँ हैं, किसके साथ हैं, किस स्थिति में हैं उसे कोई मतलब नहीं. इधर मोबाइल के उपयोग को लेकर अपने आपमें उथल-पुथल कुछ ज्यादा ही मची हुई है. इसी में आज एक चित्र हाथ लग गया, जिसमें एक समाचार प्रकाशित था. उसे देखकर विचार आया कि आज की ये पोस्ट उसी पर लिखी जाये.

 

पोस्ट लिखने के बारे में बताने का एक विशेष कारण ये है कि आज की ये पोस्ट हमारे इस ब्लॉग की 2200वीं पोस्ट है. मई 2008 से शुरू ब्लॉगिंग की यात्रा धीरे-धीरे चलते हुए यहाँ तक पहुँच गई. बहरहाल, ब्लॉगिंग की यात्रा पर फिर कभी, आज ऊहापोह में डालते मोबाइल पर चर्चा कर ली जाये.

 

आज लगभग हर हाथ में मोबाइल है, न केवल मोबाइल है बल्कि स्मार्ट फोन कहे जाने वाले मोबाइल हैं. उन्हीं हाथों में इंटरनेट भी सुसज्जित है. ऐसा तो नहीं कहेंगे कि जितने हाथों में स्मार्ट फोन है, इंटरनेट है वे सभी लोग अत्यधिक व्यस्त हैं मगर बहुतायत में ऐसे लोग हैं जो चौबीस घंटे के हिसाब से अपने इसी स्मार्ट फोन में व्यस्त हैं. हर दो-चार मिनट में उनकी जेब से, बैग से मोबाइल निकलता है, चमकता है और फिर इधर-उधर कुछ उँगलियों का सहारा लेकर वापस अपनी जगह चला जाता है. कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके आसपास कितने लोग भी क्यों न हों, कितने भी ख़ास क्यों न हों, कितने आम क्यों न हों उनका मोबाइल न बंद होता है और न ही जेब-बैग के हवाले होता है. संभवतः नहाते समय ही ऐसे लोगों का मोबाइल उनके हाथ से छूटता हो.

 

हमारा व्यक्तिगत रूप से ऐसा मानना है कि मोबाइल और इंटरनेट की जुगलबंदी ने इंसान का जीना मुश्किल किया है. उसकी सामाजिकता को प्रभावित किया है. उसकी जीवनशैली को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है. इस बात को हम अपने व्यक्तिगत अनुभवों से कह रहे हैं. आज देखने में आ रहा है कि मोबाइल के, इंटरनेट के, सोशल मीडिया के अतिशय उपयोग ने लोगों को घनघोर भीड़ में भी अकेले कर दिया है. किसी समय बातचीत को सहजता, सरलता, गतिशीलता देने के लिए मोबाइल को बनाया गया था. आज स्थिति ये है कि बातचीत को छोड़कर बाकी सबकुछ मोबाइल पर होता है. मोबाइल अपने आपमें आपकी व्यक्तिगत संपत्ति जैसा है. किसी समय घर में लगे बेसिक फोन को परिवार का फोन कहा जाता था. एक ही फोन पर समूचा परिवार बात करता था. मोबाइल के द्वारा व्यक्तिगत भाव पैदा कर देने से कुछ लाभ हुए हैं तो उनके सापेक्ष नुकसान बहुत ज्यादा हुए हैं. किसी समय तक मोबाइल से बातचीत हो जाया करती थी मगर सोशल मीडिया के आने के बाद तो जैसे आपस में बातचीत करना बंद सा ही हो गया है. अब सुबह-सुबह एक मैसेज छोड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है. अब इसकी चिंता नहीं कि जिसे हम अपना मित्र कहते हैं, जिसे अपने साथी-सहयोगी बताते नहीं थकते, उससे बातचीत करके उसके हालचाल भी नहीं लेते.

 

मोबाइल के द्वारा इस तरह का अकेलापन पैदा कर दिए जाने को लेकर हमेशा एक तरह का भय हमारे भीतर रहता है. इस भय के अलावा समय-असमय आने वाली अनावश्यक कॉल्स के कारण भी मोबाइल सिरदर्द समझ आने लगा है. कुछ इसी तरह की अन्य दूसरी समस्याओं के कारण हमने वर्ष 2011 में मोबाइल का उपयोग पूरी तरह से बंद कर दिया था. पूरे दो साल किसी भी तरह से मोबाइल का उपयोग हमने नहीं किया था. बैंकों ने जिस तरह से जबरिया अनिवार्यता सी बना दी है, मोबाइल की उसके चलते बस उतनी देर को मैसेज देखने के लिए, ओटीपी देखने के लिए मोबाइल का उपयोग किया जाता था. हमारे उस निर्णय पर लोगों को आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि इससे लोगों को दिक्कत होगी. हमें तब भी समझ न आया था, आज भी समझ नहीं आया है कि मोबाइल हम अपनी सुविधा के लिए रखते हैं अथवा दूसरों की सुविधा के लिए? लोगों के काम, संपर्क, मेल-मिलाप उस समय भी हुआ करते थे, जबकि मोबाइल का चलन नहीं था या कि मोबाइल सबके पास नहीं हुआ करता था. अपने भीतर की उथल-पुथल से, अपने अन्दर के द्वंद्व से निपट लेने के बाद मोबाइल को बंद करना है. कतिपय तानाशात्मक सरकारी, गैर-सरकारी रवैये के चलते पूरी तरह से बंद कर पाना संभव न हुआ तो नगण्य उपयोग की सम्भावना निर्मित की जाएगी.

 

इन तमाम समस्याओं के साथ-साथ एक बहुत बड़ा संकट मोबाइल उपयोग को लेकर सबके साथ है मगर उसे लोग सामान्य ही समझ रहे हैं. आज सरकारी, गैर-सरकारी कार्यों, संस्थानों की स्थिति यह हो गई है कि आपको किसी भी तरह का काम करना है तो उसमें अनिवार्य रूप से मोबाइल की उपलब्धता माँगी जाती है. इस पर भी एक तानाशाही और हावी है कि मोबाइल फोन अब सादा न होकर स्मार्ट फोन हो, जिसमें अनेक एप डाउनलोड हो जाएँ, वेबसाइट चल जाएँ. यहाँ सोचना-समझना होगा कि जिस देश में बहुतायत जनसंख्या मूलभूत आवश्यकताओं को पाने के लिए जद्दोजहद कर रही हो वहाँ हर हाथ में स्मार्ट फोन की अनिवार्यता सी बना देना क्रूर मजाक है. शैक्षिक संस्थानों में विद्यार्थी अपने प्रवेश के लिए फॉर्म बाद में भरता है, पहले उसे मोबाइल नंबर उपलब्ध कराना होता है. बैंक में आपका खाता बाद में खुलेगा, पहले आपको स्मार्ट फोन से ओटीपी बताना पड़ता है. रेल-हवाई जहाज में आपकी यात्रा बाद में होती है पहले आपको अपने स्मार्ट फोन में एक एप डाउनलोड करके खुद को सुरक्षित बताना होता है.

 

एक तरह की यह मोबाइल अनिवार्यता तानाशाही जैसा नहीं है? क्या ये अनिवार्य रूप से लागू नहीं कर दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति मोबाइल का उपयोग करे? क्या इस बात के लिए कदम नहीं बढ़ा दिए गए हैं कि हर व्यक्ति स्मार्ट फोन ले और उसमें इंटरनेट की सुविधा हो? क्या यह एक तरह से बहुत बड़े जनमानस को पंगु बनाने जैसा नहीं है? फिलहाल तो हमारी ऐसी बातें लोगों को मजाकिया लगती हैं, ऐसा इसलिए भी क्योंकि मोबाइल के, इंटरनेट के, सोशल मीडिया के अभी लोग मजे ही ले रहे हैं. यद्यपि वे अपने कष्ट को बताते भी हैं तथापि मोबाइल के नशे के आदी हो जाने के कारण उसे छोड़ पाने में कठिनता महसूस करते हैं. जिस चित्र की बात पोस्ट के आरम्भ में ही की थी, यदि उसमें दर्शाया गया समाचार सही है तो यह समझने वाली और चिंतन करने वाली बात है कि जिस व्यक्ति ने मोबाइल फोन का अविष्कार किया वही अब सामान्य ज़िन्दगी में जीने की बात कर रहा है, मोबाइल छोड़ने की बात कर रहा है.




1 टिप्पणी:

  1. सही है जो दूर कही है वो वर्चुअल वर्ल्ड में घूम रहे है ।बगल बैठे को कोई ध्यान ही नही देता।मशीन के साथ रहते रहते मशीनी होते जा रहे है हम लोग। हर चीज़ पर कंट्रोल चाहिए आज लोगो को इंसान को भी बटन्स से ऑपरेट करना चाहते है।

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