भारतीय समाज में मानवीय आधार पर निर्मित
अनेकानेक मान्यताओं, परम्पराओं का अपना वैज्ञानिक आधार रहा
है. उसके अनुपालन के पीछे संस्कारों का निर्माण, संस्कृति का
संवर्धन, सहयोग की भावना का विस्तारण करना रहा है. वसुधैव
कुटुम्बकम महज एक विचार नहीं, चंद शब्द नहीं वरन अपने आपमें
एक समृद्ध अवधारणा है, जिसके द्वारा इंसान को न केवल इंसान
से बल्कि इंसान को प्रकृति के अंग-अंग से समन्विति बनाये रखने को बल मिलता है.
आधुनिकता के वशीभूत हमने न केवल वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को छिन्न-भिन्न किया
वरन अपने आपको नितांत अकेलेपन का शिकार बना लिया. तकनीकी, ज्ञान,
कार्य की असीमित व्यस्तता के बीच भी इंसान किस कदर अकेला पड़ गया है
इसे महानगरों के साथ-साथ छोटे-छोटे नगरों, कस्बों में भी
सहजता से देखा जा सकता है.
आधुनिकता का आलम ये है कि उत्सव, त्यौहार, आयोजन अब हर्ष-उल्लास का विषय नहीं वरन
विवाद का विषय बनने लगे हैं, ऐसे में इंसान को भरे-पूरे होने
का एहसास कैसे हो? दोस्तों की महफ़िल कहीं दूर हो गई है,
सांझ ढलने से देर रात चलने वाली हँसी-मस्ती की आवारगी अब देखने को
नहीं मिलती है. बच्चों के लिए खेल के मैदानों को बड़ी-बड़ी इमारतों ने निगल लिया है,
अब वे मैदान में मस्ती करने के स्थान पर मोबाइल, टीवी, वीडियो गेम के सामने अकेले-अकेले अपनी
सक्रियता प्रदर्शित करते हैं. इस स्थिति के दुष्प्रभाव का हाल ये है कि आज एक घर में
कई-कई घर देखने को मिल रहे हैं. अपने-अपने कमरे की चहारदीवारी में अपना-अपना एक
अलग संसार बनाकर लोग उसी में ख़ुशी तलाश रहे हैं. अपने आपसे घिरे नितांत अकेले अपने
में ही अपने को खोज रहे हैं.
इक्कीसवीं सदी को औद्योगीकरण की, भूमंडलीकरण की, वैश्वीकरण की, तकनीक
की सदी घोषित कर दिया गया. इसके चलते लोगों के लिए एकमात्र उद्देश्य सिर्फ और
सिर्फ धनोपार्जन करना बन गया है. इसके लिए जीवन को यंत्रवत सा बना लिया गया है. धनोपार्जन
की आपाधापी में अभिभावकों का संलिप्त रहना, युवाओं का
भागमभाग में जुट जाना, अपनी आँखों के सपनों को जिंदा बनाये
रखने के लिए संवेदना को मारकर आगे बढ़ते जाना आदि ऐसा कुछ हुआ जिसने समूचे समाज को
उल्टा खड़ा कर दिया. अनियमित होती जीवनशैली, परिवार से दूर
रहने की मजबूरी, अधिकाधिक भौतिक संसाधनों की प्राप्ति करना,
चकाचौंध भरी जिंदगी को जीने की लालसा ने इंसान को इंसान की जगह मशीन
बना दिया. रिश्ते, नातों, परिवार,
बच्चों, दोस्तों आदि को उसने सिर्फ बाज़ार की
दृष्टि से देखा, सब जगह उसने हानि-लाभ का समीकरण लगाया और उसी के अनुसार अपने आपको
संबंधों-रिश्तों के साँचे में उतारा. इस यांत्रिक जीवन का दुष्परिणाम यह हुआ कि
सारे रिश्ते समाप्त से होते दिखे. बच्चों के लिए माता-पिता और माता-पिता के लिए
बच्चे नोट छापने की मशीन मात्र बनकर रह गए. रिश्तों का मोल महज संबोधन के लिए होता
दिखने लगा.
ये यांत्रिक ज़िन्दगी न केवल धनोपार्जन के लिए
वरन बचपन, शिक्षा, घर-परिवार आदि में
भी दिखने लगी है. किसी समय मौज-मस्ती, शैतानियों, शरारतों आदि के लिए बचपन को याद किया जाता था किन्तु अब ऐसा लगता है जैसे
बचपन की भ्रूण हत्या कर दी गई है. हँसते-खेलते बच्चों की जगह बस्तों का बोझ लादे,
थके-हारे से, मुरझाये से बच्चे दिखाई देते
हैं. शरारतों, शैतानियों की जगह उनके चेहरों पर
बड़ों-बुजुर्गों जैसी भाव-भंगिमा, सोच-विचार दिखाई देता है.
नीले आकाश के नीचे उन्मुक्त खेलते, तितली बनकर उड़ते बच्चों
को अब कमरों में बंद कर दिया गया है. किसी समय में दादा-दादी, नाना-नानी के आँचल में छिपकर परियों, वीरों के
किस्से-कहानियाँ सुन-सुनकर बड़े होने वाले बच्चे टीवी सीरियल्स के कथित लाइव शो को
देखकर बड़े हो रहे हैं, स्मार्टफोन की इंटरनेट दुनिया के कारण
समय से पहले ही स्मार्ट हो रहे हैं. ऐसी स्थिति में अकेलापन बढ़ना स्वाभाविक ही है
और वैसा हुआ भी. धन, भौतिक संसाधन, आधुनिकतम
उपकरण, तकनीक की भरमार हो गई और इंसान एकदम अकेला हो गया.
इस अकेलेपन को दूर करने के लिए तनहा इंसान ने
सबक न लिया; अपनी तन्हाई को दूर करने के लिए अपनों का सहारा
नहीं लिया; अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए इंसानों का
सहयोग नहीं लिया क्योंकि विडम्बना ये है कि आधुनिकता के बाज़ार में इंसान दिख ही
नहीं रहे हैं. चारों तरफ सिर्फ मशीन ही मशीन हैं, यंत्र ही
यंत्र हैं. इससे अकेलापन कम होने की बजाय बढ़ता जा रहा है. इंसान के भीतर एक तरह का
खोखलापन बढ़ता जा रहा है. ऐसी स्थिति में अंत नितांत दुखद होता है. जब आँख खुलती है
तो व्यक्ति को सबकुछ पीछे छूट जाने के दुःख होता है, अपनों
के कहीं दूर चले जाने का भाव जगता है. यही सबकुछ व्यक्ति में और अधिक दुःख,
हताशा, निराशा का संचार कर देता है. यही वे
हालात हैं जिसका शिकार न केवल वयस्क हो रहे हैं वरन बच्चों को, किशोरों को भी इसका शिकार होते देखा जा रहा है. संयुक्त परिवार की
संकल्पना का ध्वंस करके एकल परिवार अस्तित्व में लाये गए किन्तु उनमें भी आज
एक-दूसरे के लिए समय का अभाव दिख रहा है. अकेलेपन की इस त्रासदी के चलते बच्चे,
किशोर, युवा, वयस्क आदि,
वो चाहे पुरुष हो या स्त्री, किसी अनजाने की
खोज में लगे रहते हैं. ये अकेलापन उनको एहसास कराता है कि कोई उनको पसंद नहीं करता
है, कोई उनको समझने का प्रयास नहीं करता है, उनके लिए किसी के पास समय नहीं. ये स्थिति ऐसे लोगों को चिड़चिड़ा बना देती
है, बात-बात में आक्रोशित होना, अकारण
किसी से झगड़ा कर बैठना ऐसे लोगों का स्वभाव बन जाता है.
ऐसे में व्यक्ति या तो अवसाद की अवस्था में चला
जाता है या फिर आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर बैठता है. ज़ाहिर है कि अकेलेपन का
इलाज मशीन नहीं, बाज़ार नहीं, तकनीक
नहीं वरन अपने लोग हैं, घर-परिवार है. आवश्यकता इस सत्य को
समझने की है. यदि ऐसा नहीं होता है तो कारण कुछ भी बताये जाएँ, लोगों में अकेलापन हावी रहेगा, लोगों का मौत के आगोश
में चलते चले जाना जारी रहेगा.
👌👌
जवाब देंहटाएंवास्तविकता का अहसास कराता आलेख।
जवाब देंहटाएंचिन्तनशील आलेख। बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंकड़वे सच से साक्षात्कार करा दिया। 🙏👍🏻😊❤️
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