एक शिक्षक के
रूप में किसी संस्थान में पढ़ाना कभी भी सोचा नहीं था और विडम्बना देखिये कि आज भी एक
संस्थान में अध्यापक के रूप में नियुक्त होने के बाद भी खुद को इसके लायक नहीं
समझते हैं. जीवन के किसी भी पल में शिक्षक बनने का ख्याल मन में नहीं आया. इंटरमीडिएट
तक की पढ़ाई के दौरान तो पढ़ना ही बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं लगता था. ये बात है
नब्बे के दशक की, उस समय के बच्चों में बहुत कम बच्चे ही
ऐसे होंगे जो अपने कैरियर के लिए गधे के जैसे लगे रहते होंगे. हम तमाम मित्र तो
अपने पेपर वाले दिन भी ये प्लान बनाने में ज्यादा समय बिताया करते थे कि पेपर के
बाद और शाम को कहाँ पर बैडमिंटन खेलना है, कहाँ पर क्रिकेट खेलना है.
आज के बच्चों
को, उनके माता-पिता को देखते हैं तो लगता है
कि जैसे हमारे दौर में न तो बच्चे हुआ करते थे, और न ही माता-पिता. सबके सब एकदम निर्द्वंद्व, स्वतंत्र से दिखाई देते थे, जिनके सामने
एकमात्र उद्देश्य स्वस्थ जीवन बिताना हुआ करता था, बाकी की बातें द्वितीयक थीं. खैर, माता-पिता-गुरुजनों के आशीर्वाद से इतना पढ़ गए
कि अपने से बहुत छोटे बच्चों को कुछ समझा सकते. इसी कड़ी में उरई के अपने ही अभिन्न
पारिवारिक सदस्य के शैक्षिक संस्थान से स्नेहिल आदेश जैसा आया कुछ महीने हिन्दी
विषय में अध्यापन कार्य का. चूँकि उस समय तक परास्नातक किये भी पाँच-छह वर्ष बीत
चुके थे, सिविल सेवा की तैयारी भी ठीक-ठाक चल रही
थी ऐसे में एक पल को लगा कि किसी संस्थान में पढ़ाने के लिए जाने पर भले ही कुछ
आर्थिक सहायता हो जाये मगर हमारी खुद की तैयारी में नकारात्मक असर होगा. ऐसी ही
सोच के चलते पहले तो वहाँ पढ़ाने से इंकार कर दिया मगर पारिवारिक रूप से जुड़े होने
के कारण वहाँ पढ़ाने के लिए सहमति दे दी.
स्कूल में जाना
हुआ तो बहुत से विद्यार्थियों से संपर्क हुआ. बहुत से विद्यार्थी पूर्व-परिचित
निकले तो कुछ उसके बाद परिचित हो गए. स्कूल के कुछ विद्यार्थी पढ़ने के इच्छुक रहते
थे तो कुछ के लिए स्कूल महज तफरी का माध्यम. हमने अपने स्तर पर जैसा बन पड़ता था
वैसा किया. किसी भी विद्यार्थी के साथ किसी भी स्तर का भेदभाव नहीं किया. पढ़ाने के
मामले में जो, जितना ज्ञान हमें था उतना सब अपने
विद्यार्थियों के बीच बांटने की कोशिश की. इस कोशिश में बहुत विद्यार्थी अत्यंत
निकट आ गए. उन सभी से ये निकटता न केवल उन तक रही बल्कि पारिवारिक हो गई. आज वे
विद्यार्थी भले ही उच्च सेवाओं के चलते, वैदेशिक
व्यवस्थाओं के चलते हमसे बहुत दूर हों मगर इंटरनेट के कारण से, सोशल मीडिया के कारण से उतने ही निकट हैं.
अपनी ऐसी ही एक
विद्यार्थी, अर्चना से मुलाकात हुई. कई वर्षों के बाद हुई मुलाकात में बहुत सी पुरानी
बातें सामने से गुजरीं, बहुत से घटनाक्रम ने फिर से उसी दौर में
पहुँचा दिया. अर्चना से और उसके परिवार से सोशल मीडिया के माध्यम से मिलना होता
रहता है, इस कारण से लगा नहीं कि बहुत दिन बाद
मिल रहे हैं. बहुत सारी बातें हुईं और उन्हीं बातों में वो दौर भी याद आया और आज
का समय भी सामने आया. आज भी हम एक शैक्षिक संस्था में अध्यापन कार्य कर रहे हैं.
वहाँ भी हमारा वर्ष 2005 से
अध्यापन कार्य में जुड़ना हो गया था. इसके बाद भी लगता है कि वे विद्यार्थी जो हमसे
वर्ष 2000 में जुड़े थे, वे आज भी दिल से जुड़े हैं, ईमानदारी से जुड़े हैं.
बहरहाल, हमारे जो भी विद्यार्थी रहे हैं, आज हैं उन सबको आशीर्वाद कि वे उच्च पदों पर
विराजमान हों मगर गुरु-शिष्य की पावन परम्परा को विस्मृत न करें. उस परम्परा का
पूरी ईमानदारी, सकारात्मकता से पालन करते अर्चना को
देखा, अन्य कई विद्यार्थियों को भी देखा है.
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