03 फ़रवरी 2022

कोरोनाकाल में सर्वाधिक नुकसान में रहे बच्चे

असमंजस का दौर अभी भी समाप्त नहीं हुआ है. भयग्रस्त वातावरण अभी भी बना हुआ है. विविध प्रकार के नुकसान रोज ही सामने आ रहे हैं. विगत दो वर्षों से कोरोना वायरस से लड़ते हुए देश ने बहुत सारे मोर्चों पर सफलता भी पाई है तो बहुत सारे क्षेत्रों में नुकसान भी उठाना पड़ा है. विविध क्षेत्रों के नुकसान का आकलन लगाकर उसकी भरपाई के तरीके भी खोजे जाने लगे हैं. आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में अपनी-अपनी तरह से संसाधनों को एकत्र करके, उपलब्ध संसाधनों को पुनर्जीवन प्रदान करके नुकसान को बहुत हद तक पाटने की कोशिश जारी है. इसी में एक क्षेत्र ऐसा है जिसके नुकसान की तरफ बहुत अधिक न तो ध्यान जा रहा है और न ही उसकी भरपाई के लिए विचार किया जा रहा है.


ऐसा एक क्षेत्र शिक्षा जगत है, जहाँ विगत दो वर्षों से व्यापक असमंजस बना हुआ है. जैसे ही लगता है कि स्थिति कुछ सामान्य होने जा रही है वैसे ही कोरोना का कोई नया वेरिएंट आकर सबको भयग्रस्त कर देता है. ऐसे में सबसे ज्यादा डर बच्चों की सुरक्षा को लेकर ही उत्पन्न होता है. इस भय के चलते ही जहाँ एक तरफ अभिभावक बच्चों को शैक्षिक संस्थानों में भेजने से बचने लगते हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकार भी एक तरह का अभिभावकत्व भाव अपनाते हुए शैक्षिक संस्थानों को सबसे पहले बंद करवा देती है.


यह सच है कि बच्चों के स्वास्थ्य, उनकी शारीरिकता को लेकर किसी तरह की लापरवाही नहीं की जा सकती है. सरकार का आरम्भ से ही प्रयास रहा है कि बच्चों को इस बीमारी के प्रकोप से बचाए रखा जाये. वैक्सीन की अनुपलब्धता होने की स्थिति में तमाम सारे सुरक्षात्मक उपाय समय-समय पर सरकार की तरफ से, समाज की तरफ से बताये जाते रहे, अपनाये जाते रहे. शैक्षिक संस्थानों का बंद किया जाना भले ही बच्चों को इस बीमारी से बचाए रखने का एक कारगर उपाय बनकर सामने आया हो मगर इसके भी अपनी तरह के नुकसान बच्चों को उठाने पड़े हैं. ऐसे नुकसान ये बच्चे आज भी उठा रहे हैं.


संस्थानों को बंद करवा कर, बच्चों को विद्यालयों में न भेजकर उनकी स्वास्थ्य समस्या के प्रति एक तरह की जागरूकता दिखाई गई, उनको स्वास्थ्य मामलों में भले ही सुरक्षित कर लिया हो मगर इसी के दूसरे पहलू में बच्चों को असुरक्षित भी कर दिया गया है. इस सन्दर्भ में यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो ऑनलाइन कक्षाओं ने बच्चों को कई तरह से नकारात्मक रूप में प्रभावित किया है. कई-कई घंटे मोबाइल, कम्प्यूटर की स्क्रीन में आँखें लगाये बैठे बच्चों को आँखों की समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है. किसी समय मोबाइल और कम्प्यूटर की रौशनी को बच्चों की आँखों, उनके रेटिना के लिए घातक बताया जाता था. अब कोरोना के चलते हुई बंदी ने इसी खतरे के साथ बच्चों को बड़ा होने को विवश किया.


यहाँ एक बिंदु आँखों की समस्या का होना ही नहीं है बल्कि इसके साथ-साथ एक और शारीरिक समस्या उभरी गर्दन में दर्द की, रीढ़ की हड्डी में विकार की. सामान्य रूप में किसी भी विद्यालय द्वारा कम से कम पाँच घंटे तक ऑनलाइन कक्षाओं का सञ्चालन किया गया. इतनी लम्बी अवधि तक एक अवस्था में बैठ कर, गर्दन को झुकाकर मोबाइल, कम्प्यूटर स्क्रीन में काम करने से बहुतायत बच्चों में रीढ़ की हड्डी की, गर्दन की समस्या उभरी है. इन शारीरिक समस्याओं के साथ-साथ बहुत से बच्चों में आपसी समन्वय, सहयोग, सामंजस्य आदि जैसी स्थितियों में भी ह्रास देखने को मिला है. इस अवधि में बहुत से बच्चे मानसिक रूप से कमजोर भी हुए हैं. ये और बात है कि उनके द्वारा अपनी पाठ्य-सामग्री को, अपने पाठ्यक्रम को बखूबी पूरा किया गया, अपने शैक्षणिक अंकों के मामले में भी उनमें बहुत ज्यादा नकारात्मकता देखने को नहीं मिली है मगर जिस उद्देश्य के साथ बच्चों को किसी संस्थान में जाना होता है, उस उद्देश्य की पूर्ति न होने के कारण बच्चों के मानसिक विकास में भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.


लॉकडाउन जैसी स्थिति के कारण से बच्चों का बाहर निकलना भी बंद रहा, पार्क, मैदान में खेलना-कूदना भी बंद रहा. अपने मित्रों, विद्यालय के सहयोगियों के साथ मिलना-जुलना न होने के कारण भी उनमें अकेलेपन जैसी मानसिकता ने जन्म लिया है. समूह के साथ मिलकर काम करने की भावना में भी कमी आई है. न केवल खेलने के सन्दर्भ में बल्कि सामूहिक रूप से अध्ययन करने, परीक्षाओं की तैयारी करने के सन्दर्भ में भी इसे देखा जा सकता है. इस तरह की कमी होने से बच्चों के मानसिक विकास का एक पक्ष कहीं न कहीं कमजोर हुआ ही है. बहुत से नौनिहाल तो ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी आरंभिक अवस्था में विद्यालय के दर्शन ही नहीं किये हैं. उम्र की दृष्टि से उनको आगे की कक्षाओं में भले ही प्रवेश दे दिया जाये, उनके ज्ञान को, शब्द-भंडार को भले ही घर-परिवार के द्वारा समृद्ध कर दिया गया हो मगर विद्यालय की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा से वे निश्चित ही हमेशा के लिए वंचित रह गए हैं. निश्चय ही इससे उनके कोमल मन पर जिस भावना का प्रस्फुटन होना था, वह नहीं हो सका है.


शैक्षिक संस्थानों को आये दिन बंद करके सरकार ने, समाज ने, परिवार ने बच्चों को बीमारी से तो बचा लिया. उनको स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या में जाने से रोक लिया मगर उसके बदले दूसरी तरह की शारीरिक समस्या में अजनाने ही धकेल दिया है. उनके शैक्षणिक विकास के लिए तकनीक का सहारा दिलवाया तो उसके बदले मानसिक समस्या का उपहार भी दे दिया. कोरोना संक्रमण से बच्चों को बचाया गया मगर वे अकेलेपन, अवसाद, गुस्सा, तनाव आदि से संक्रमित होने लगे. बीमारी से बचाव के लिए उठाये गए कदमों ने बच्चों को, नौनिहालों को अजनाने दूसरी तरह की बीमारियों, समस्याओं से ग्रसित करवा दिया. असमंजस के वर्तमान दौर से उबरते हुए बच्चों को उनकी इस नवीन समस्या से, उनकी मानसिक परेशानी से मुक्त करवाना सभी की प्राथमिकता होनी चाहिए. यदि सरकार, समाज, शैक्षिक संस्थान, परिवार ऐसा करने में असफल रहते हैं तो देश की बहुत बड़ी भावी पीढ़ी एक अनचाही, अनजानी बीमारी के साथ आगे बढ़ेगी.


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(उक्त आलेख दिनांक 03.02.2022 के जनसन्देश टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर 'जनसंपादकीय' कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है.)

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