21 जनवरी 2022

आखिर मजबूरी का फायदा कब तक उठाओगे?

वर्ष था 1989, प्रधानमंत्री के रूप में एक और स्मार्ट व्यक्ति टीवी पर, समाचार-पत्रों पर दिखाई दे रहा था. विश्वनाथ प्रताप सिंह के रूप में एक नया चेहरा राजनीति के फलक पर चमक रहा था. उस समय हम इंटरमीडिएट में थे. राजनीति की कोई समझ न थी, बस ये पता था कि हमारे पिताजी जिस विचारधारा के साथ हैं, उसी के साथ मिलकर एक व्यक्ति प्रधानमंत्री बना है.


इसी के साथ आया वर्ष 1990, उरई के बजाय हम स्नातक की पढ़ाई के लिए पहुँच गए ग्वालियर. यहाँ पहुँचते ही एक धमाका हुआ, राजनीतिक संसार में. आरक्षण का बम फूटा. राजू गोस्वामी जैसे अनेक युवा असमय उसकी चपेट में आ गए. युवा लहू ने जोश मारा और हम सब मित्र भी आरक्षण विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बन गए.


उसी समय मुलाक़ात हुई भाजपा विचारधारा के लोगों से, जिनको बुआ कहते रहे, उन राजमाता से. बस एक झटके में भाजपा के साथ जुड़ गए या कहें कि उस समय हम सभी राजमाता के स्नेहमयी आँचल में अपना ठिकाना पा गए. बुआ जी चली गईं, उन्होंने जिन-जिन लोगों से परिचय करवाया, वे बहुत से लोग चले गए मगर उनके द्वारा दिया गया आशीर्वाद आज भी सिर पर धारण किये हैं.


विरोधी इसे भक्त के रूप में पुकारें या फिर अंध-भक्त के रूप में मगर सत्य ये है कि अपनों के आँचल से सहजता से दूर नहीं हुआ जाता. इसके बाद भी एक बात साफ़-साफ़ कहते हैं कि आँचल के नीचे दुराभाव भी नहीं देखा जाता, स्नेहमयी आँचल की छाँव में बेशरमबेल को पनपते भी नहीं देखा जाता.


कोई कुछ भी कहे, मगर हम तो हमेशा से यही विचारते रहे हैं कि भाजपा द्वारा खड़े किये जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जीत हो. हम हर बार यही सोचकर मतदान करते रहे कि वे भी हमारी तरह व्यक्ति को नहीं बल्कि राष्ट्र को देखते होंगे. मोदी और योगी तो आज आ गए, इससे पहले भी हम भाजपा को वोट करते थे.


कहना खराब लगता है मगर कहना पड़ता है. कह दिया है, लिख दिया है उनको जो खुद को हमारा आलाकमान कहते हैं. जानते हैं हम कि कुछ होने वाला नहीं है मगर, असल कार्यकर्त्ता हतोत्साहित होता है. बार-बार हतोत्साहित होना अवसाद में ले जाता है, ये बात समझनी होगी.


सौ की सीधी एक बात जो लगभग हर सच्चा कार्यकर्त्ता कहता है, (भले ही खुलेआम न कहे, सार्वजनिक मंच से न कहे, मगर हम कहते हैं) कि मरे कुत्ते को भी टिकट दे दो, तो भी वोट वहीं जायेगा मगर ऐसा कब तक?

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