संबंधों, रिश्तों का बनाया
जाना जितना आसान है, जितना सहज है उनका निर्वहन करना या कहें
कि उनका पूरी ईमानदारी से निर्वहन करना उतना ही कठिन है. किसी भी सम्बन्ध, रिश्ते में निर्वहन की समस्या उसी समय से आनी शुरू हो जाती है जिस समय से
उनसे किसी तरह की अपेक्षा की जाने लगती है. यदि संबंधों को,
रिश्तों को अपेक्षाओं से मुक्त रखा जाये तो वे निर्वहन के प्रति समस्या नहीं बनते
हैं. संभवतः इसी कारण से कहा
भी जाता है कि संबंधों को, रिश्तों को किसी भी तरह के बंधन में नहीं बांधना चाहिए.
ऐसा इसलिए क्योंकि एक तो रिश्तों, संबंधों की कोई परिभाषा निश्चित नहीं की जा सकती, दूसरे यदि संबंधों और रिश्तों को किसी
तरह के बंधन में बाँध दिया जाये तो उसमें एक तरह की बोझिलता आने लगती है. किसी भी
सम्बन्ध को, किसी भी रिश्ते को किसी भी तरह की
परिभाषा से नहीं बल्कि उनको निभाने की गंभीरता से समझा जा सकता है. असल में
सम्बन्ध अथवा रिश्ते किसी के भी जीवन का बहुत महत्त्वपूर्ण एहसास होता है, जिसे शब्दों में अभिव्यक्त करना अत्यंत
कठिन होता है.
किसी भी
व्यक्ति के जीवन में एहसासों से भरे रिश्ते एक तो मानवजनित होते हैं और दूसरी तरह
के वे रिश्ते है जो स्वतः उसे मिलते हैं. एक रिश्ते उसके जन्म के साथ उससे जुड़
जाते हैं और कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो वह इन्सान स्वयं बनाता है, उनसे जुड़ता है. जन्मते ही मिलने वाले
रिश्तों और स्वयं बनाये गए रिश्तों में मूलतः बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता है
क्योंकि सभी तरह के रिश्तों का आधार आपसी विश्वास, आपसी एहसास होता है. किसी भी तरह के संबंधों में
महत्त्वपूर्ण यह है कि हमें उसका निर्वहन कैसे करना है. संबंधों का बनाया जाना
जितना सहज, आसान होता
है उससे कहीं ज्यादा कठिन कार्य होता है संबंधों का निर्वहन करना. दरअसल संबंधों
की प्रकृति मखमली ओस की भांति होती है जो जरा सी धूप पाते ही समाप्त हो जाती है.
शांत, शीतल, चाँदनी रात की तरह की एहसास भरी प्रकृति
संबंधों में मासूमियत भरती है. इन संबंधों पर यदि किसी भी तरह से अविश्वास, आपसी द्वेष, कटुता आने लगती है तो फिर संबंधों की शीतलता, मधुरता समाप्त हो जाती है. इसके बाद भी
इन्सान उन संबंधों को भले ही बनाये रखे मगर वह एक तरह से उनको ढोता ही रहता है, उनका निर्वहन नहीं करता है.
जो रिश्ते
इन्सान को स्वाभाविक रूप से मिलते हैं उनका अपना ही अलग रंग-रूप है किन्तु जो
रिश्ता वह खुद बनाता है उसके प्रति वह अपनी समझ-बूझ, अपने दिल की पसंद, अपने दिमाग की सोच आदि की मदद लेता है. इसके बाद
भी सत्य यही है कि संबंधों में औपचारिकता नहीं चल सकती है. ऐसा कोई भी सम्बन्ध जो
औपचारिकता के चलते बनता है, किसी स्वार्थ के चलते बनता है उसमें एकसासों की जबरदस्त कमी होती है.
एहसासों की कमी के साथ बनते, पनपते सम्बन्ध न तो मधुरता प्रदान करते हैं और न ही उसमें ख़ुशी मिलती है.
सत्यता यह है कि रिश्ते, सम्बन्ध के बनने में भले ही इन्सान की अपनी पसंद हो मगर दो लोगों के बीच की
कुछ ऐसी स्थिति भी होती है जो उनके बीच एक तरह की बॉन्डिंग का निर्माण करती है. दो
लोगों के बीच की मानसिक स्थिति, उनके दिल के सामंजस्य की स्थिति या कुछ ऐसी बॉन्डिंग स्वतः निर्मित होने
लगती है कि एक इन्सान पहली मुलाकात में ही पसंद आने लगता है. यही कुछ ऐसा भी होता
है कि कोई पहली मुलाकात में ही पसंद नहीं आता है. किसी भी इन्सान के शारीरिक
हावभाव, सौन्दर्य भले
ही एकबारगी प्रभाव डालते हों मगर बहुधा देखने में आता है कि किसी तरह का अप्रत्यक्ष
एहसास सर्वोपरि होकर असरकारक भूमिका निभाता है. पसंद आने वाले उस इन्सान से दिल की
बात कहने में भी ख़ुशी मिलती है. उस व्यक्ति से अपने सुख-दुःख बाँटने में भी किसी
तरह का संकोच नहीं होता है. एहसासों से बंधे रिश्ते में आपस में किसी तरह की
औपचारिकता नहीं रह जाती है. ऐसे लोगों से अपने दिल की बात बताने का मन करता है, उनके दिल की बात सुनने की इच्छा होती है.
संबंधों के बीच
एहसासों की डोर का होना अत्यंत आवश्यक है. बिना एहसास रिश्तों का बहुत लम्बे समय
तक चलना नामुमकिन है. यह एहसास आपसी विश्वास, आपसी सहयोग, आपसी समन्वय की भावना से ही निर्मित होता है. ऐसे
में जबकि समाज में आपसी संबंधों में, रिश्तों में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है, हम सभी का दायित्व यही होना चाहिए कि
किसी तरह की परिभाषा में बांधे बिना संबंधों को, रिश्तों को एहसासों के साथ जीना शुरू किया जाये.
आपस में समन्वय, स्नेह, विश्वास बनाये रखा जाये.
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