शिक्षित व्यक्ति विमर्श करने की क्षमता का विकास कर लेता है. तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर तर्कशील बन जाता है. इधर कुछ समय से लगने लगा है कि आधुनिकता के नाम पर साक्षरता जैसे देह के आसपास सिमटती जा रही है. इस देह में भी उस विमर्श के लिए स्त्री-देह सबसे सहज विषय-वस्तु बन गई है. इसी कारण अब तर्क-वितर्क में बहुधा महिलाओं से सम्बंधित मुद्दे, महिलाओं से सम्बंधित विषय ज्यादा सामने आने लगे हैं. इन विषयों पर, मामलों पर कुतर्क जैसी स्थितियाँ न केवल पुरुषों द्वारा बल्कि स्त्रियों द्वारा भी अपनाई जा रही हैं. विगत कुछ समय से स्त्री-विषयक बहसें लगातार सामने आ रही हैं. समझ से परे है कि ये स्त्रियों को स्वतंत्रता का अधिकार का ज्ञान कराने के लिए हो रहा है या फिर उनकी स्वतंत्रता की आड़ में बाजार को सशक्त किया जा रहा है? कुछ दिनों पहले हैप्पी टू ब्लीड जैसा आन्दोलन चला. जिसके द्वारा महिलाओं की माहवारी को केंद्र में रखा गया. कुछ अतिजागरूक महिलाओं ने खुद को इस आन्दोलन में सूत्रधार की तरह से आगे धकेलते हुए माहवारी के दाग के साथ खुद को प्रदर्शित किया. इस हैप्पीनेस को पाने के बाद इन्हीं आन्दोलनरत महिलाओं ने सेनेटरी पैड के मुद्दे को हवा देने का काम किया. इस बार इनका मुद्दा सस्ते पैड नहीं वरन इन पैड के विज्ञापनों में दिखाए जा रहे नीले रंग को लेकर था. आखिर जब खून लाल रंग का होता है तो फिर पैड के विज्ञापन में नीला रंग क्यों? वाकई स्त्री-सशक्तिकरण के नाम पर धब्बा था ये नीला रंग. आखिर लाल को नीले से परिवर्तित करके पुरुष महिलाओं को रंगों के अधीन भी लाना चाहता होगा.
अब एक नई बहस छिड़ी हुई है स्तनपान को लेकर. एक पत्रिका के कवर पर स्तनपान कराती मॉडल का चित्र बहुतों के लिए अशोभनीय रहा, बहुतों के लिए मातृत्व का परिचायक. इस मॉडल के मातृत्व के पक्ष में बहुतों ने न केवल हिन्दू धार्मिक उदाहरणों को सामने रखा वरन विदेशी संसद की कुछ महिलाओं के उदाहरण भी दिए. इस तरह की चर्चा लगभग दो-तीन साल पहले उस समय भी छिड़ी थी जबकि कुछ मॉडल्स ने नग्न, अर्धनग्न रूप में स्तनपान कराते हुए फोटोसेशन करवाया था. बहरहाल, स्तनपान किसी भी महिला के जीवन का सुखद क्षण होता है, सुखद अनुभूति होती है. स्तनपान की अहमियत को एक महिला, जो माँ बन चुकी है, बखूबी समझ सकती है. किसी पत्रिका के कवर पेज के लिए, भले ही उसका मंतव्य किसी न किसी रूप में स्तनपान की अवधारणा को विकसित करना ही क्यों अ रहा हो, स्तनपान को सार्वजनिक करना मातृत्व का परिचायक नहीं है. बहुत सूक्ष्म रूप में इसे न समझ सहज भाव से समझने की आवश्यकता है कि स्तनपान के द्वारा एक माँ न केवल अपने शिशु को भोजन दे रही होती है वरन उस शिशु के साथ गहरा तादाम्य स्थापित कर रही होती है. उन पावन क्षणों को जिन महिलाओं और पुरुषों ने पावनता के रूप में देखने की कोशिश की होगी उनको इसका अनुभव होगा कि उस क्षण जहाँ शिशु के हाथ-पैर माता के स्तन से खेल रहे होते हैं वहीं माता के हाथ उसके सिर पर आशीष-रूप बने रहते हैं. इस दौरान उन माताओं के हावभाव कम से कम इस पत्रिका की मॉडल जैसी भाव-भंगिमा जैसे नहीं होते हैं. उनके चेहरे की आत्मीयता, संतुष्टि का भाव इसके चेहरे जैसा कामुक नहीं होता है.
समझने वाली बात यह भी है कि जो महिलाएं कुछ दिनों पूर्व तक हैप्पी टू ब्लीड के नाम पर उस मानसिकता से स्वतंत्रता पाना चाहती थीं जो स्त्रियों को माहवारी के दिनों में कैद जैसी स्थिति दे देता है वे आज़ादी के रूप में स्तनपान की सार्वजनिकता चाह रही हैं. यही महिलाएं ब्रा से मुक्ति की चाह में सडकों पर ब्रा की होली जलाती हैं, खुद को बिना ब्रा के प्रदर्शित करती हैं वही महिलाएं अब स्वतंत्रता, सार्वजनिक होने के नाम पर ब्रा-युक्त स्तनपान की अवधारणा पैदा कर रही हैं. आखिर स्वतंत्रता को किस पैमाने पर उतारकर महिलाओं की आजदी के लिए वास्तविक आज़ादी की माँग ये कर रही हैं, इन्हें स्वयं नहीं मालूम. असल में बाजार ने महिलाओं को आधुनिकता के नाम पर उत्पाद बनाकर रख दिया है. स्त्री-सशक्तिकरण से जुडी महिलाएं, अपने आपको मंचों के सहारे महिलाओं की अगुआ बताने वाली महिलाएं ऐसे किसी भी मामले के लिए पुरुष को दोषी ठहराएँ मगर सत्य यही है कि आज महिलाएं स्वतः बाजार के हाथ की कठपुतली बनती जा रही है. न केवल महिलाओं से जुड़े उत्पादों में वरन पुरुषों से जुड़े उत्पादों में भी स्त्री-देह निखर कर सामने आ रही है. विज्ञापनों में महिलाओं को विशुद्ध कामुकता की पुतली बनाकर पेश करने की होड़ लगी हुई है. बॉडी स्प्रे का विज्ञापन हो तो महिला ऐसे दिखाई जाती है जैसे वह सारी उम्र, सारी शर्म छोड़कर सिर्फ देह की चाह रखती है. एक अगरबत्ती का विज्ञापन ऐसे दिखाता है जैसे उसकी महक किसी भी स्त्री को सेक्स के लिए उत्तेजित कर सकती है. चाय हो, ब्लेड हो, बनियान हो, साबुन हो, सौन्दर्य प्रसाधन हो या फिर कोई अन्य उत्पाद सभी के द्वारा महिलाओं को कामुक, उत्तेजक भूमिका में इसी बाजार ने खड़ा कर दिया है.
वर्तमान में उठा स्तनपान का ये मुद्दा विशुद्ध बाजारीकरण की देन है. जिस तरह से उस मॉडल को स्तनपान कराते प्रस्तुत किया गया है वह बाजारी दृष्टि को ही प्रदर्शित करता है. ऐसे बाजार को न माता से मतलब है, न शिशु से मतलब है और न ही स्तनपान से. इसके लिए बस अपने उत्पादों का विक्रय अनिवार्य है. किसी न किसी कीमत पर उनको बेचना उनकी प्राथमिकता है. अब इसके लिए चाहे हैप्पी टू ब्लीड के दाग हों, चाहे पैड का नीला-लाल रंग हो, कंडोम की कामुकता हो, अगरबत्ती में छिपी मादकता हो, ब्रा-पैंटी का उभार हो या फिर स्तनपान के द्वारा स्त्री-देह का प्रदर्शन हो. मातृत्व की आड़ में सामने लाये गए, बहस का विषय बनाये गए स्तनपान के बाद देखिये बाजार किस-किस गोपन को अगोपन बनाकर सामने लाता है?
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यह आलेख जनसंदेश टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक 08-03-2018 को प्रकाशित किया गया था.
आज भी तर्कसंगत है लेख ।
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