कुछ घटनाएँ संयोग रूप में हमारे साथ जुड़ सी गई हैं. ऐसी तमाम घटनाओं में एक घटना रक्तदान करने की है. संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसके द्वारा किये गए पहले रक्तदान की स्मृतियाँ गहरे से जुड़ी हों क्योंकि ये कार्य है ही ऐसा. हमारे साथ भी पहले रक्तदान की घटना आज भी गहरे से जुड़ी हुई है. इस गहराई से जुड़े होने के पीछे कोई विशेष घटना नहीं बल्कि पहली बार 1990-91 में नकली नाम से रक्तदान करना जुड़ा है. इस बारे में बहुत न लिखेंगे क्योंकि कई बार पहले भी लिख चुके, इस बारे में. इसे आप यहाँ से पढ़ सकते हैं.
रक्तदान करने से लेकर एक और घटना जुड़ी है जो
स्मृति-पटल पर सदैव को अंकित हो गई है. आज श्वेता की स्मृति में पूर्व की भांति रक्तदान
शिविर का आयोजन किया गया था. श्वेता-अंकुर से पारिवारिक घनिष्टता होने के कारण
स्वाभाविक था कि इस आयोजन में सक्रिय उपस्थिति रहनी ही थी. अब पता नहीं इसे संयोग
कहा जाये कि दुर्योग कि श्वेता से हमारी अंतिम मुलाकात रक्तदान करने के दौरान ही
हुई थी. किसी को आवश्यकता पड़ने पर उसे कॉल की गई होगी. चिकित्सक परिवार से सम्बन्ध
रखने के कारण उसे रक्त की महत्ता ज्ञात थी. तत्काल उसकी उपस्थिति रक्तदान के लिए
हुई. उस समय तक हम रक्तदान कर चुके थे. श्वेता के रक्तदान करने के बाद हमारी एक
मित्र ने हमसे उसकी तरफ इशारा करते हुए उससे परिचित होने की बात पूछी. हमने श्वेता
को चुप रहने का इशारा करते हुए उससे अपना परिचित न होना बताया. हमारी उसी मित्र ने
जानकारी देते हुए बताया कि ये मुस्कान हॉस्पिटल वाले डॉ० अंकुर शुक्ला की पत्नी हैं.
हमने अंकुर के नाम पर भी अनभिज्ञता दिखाई तो हमारी मित्र चौंकी क्योंकि उस समय तक
अंकुर और मुस्कान हॉस्पिटल जनपद में ही नहीं वरन आसपास के क्षेत्रों में भी प्रसिद्द
हो चुके थे. ऐसे में हमें इनके बारे में न मालूम होना आश्चर्य की, चौंकने की बात ही थी.
हमारी मित्र की शक्ल-सूरत देख हम दोनों ठहाका
मार कर हँस दिए. ऐसा इसलिए क्योंकि अंकुर हमारे छोटे भाई के समान है और उस दिन के
पहले भी कई बार हम लोगों की मुलाकात पारिवारिक माहौल में हो चुकी थी. तब श्वेता ने
ही उन मित्र का संशय दूर करते हुए कहा, ये हमारे बड़े भाई
हैं. तब अंदाजा भी नहीं था कि हँसने-खिलखिलाने वाली, सबकी सहायता को तत्पर रहने
वाली श्वेता के साथ हमें अगला कोई पल किसी भी रिश्ते के रूप में बिताने को नहीं
मिलेगा.
फ़िलहाल, आज के आयोजन में
हमेशा की तरह अपने दायित्व को पूरा किया. हमारे साथ हमारे छोटे भाई हर्षेन्द्र ने भी
रक्तदान किया. पिछले कई सालों से प्रतिवर्ष चार बार रक्तदान करने का नियम बना रखा
है. हर बार एक सवाल किया जाता है कि कितने बार रक्तदान कर चुके हैं? इसके जवाब में हम हर बार उनको अपनी मर्जी की संख्या भरने के लिए बोल देते
हैं. हर बार खुद से एक सवाल करते हैं, कई बार चिकित्सा अधिकारियों
से भी किया मगर उचित जवाब न मिला कि आखिर रक्तदान करने वाले से उसके द्वारा किये
जाने वाले रक्तदान की संख्या क्यों पूछी जाती है? विगत
वर्षों का जितना अनुभव हमें है ये स्थिति आपस में सिर्फ प्रतिद्वंद्विता बढ़ाती है, एक तरह के अहंकार को बढ़ाती है.
हर्षेन्द्र, अंकुर, श्वेता, हम |
(आज, 10 जून 2021 की कुछ फोटो)
.
(यह हमारे इस ब्लॉग की 2050वीं पोस्ट है)
रक्तदान वाला पहला पोस्ट पढ़ चुके हैं। रक्तदान महादान। लेकिन हम कभी कर न पाए और न कर पाएँगे, इसका अफ़सोस रहेगा। बहुत अच्छा और सराहनीय कार्य। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएं