कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, उसे कोई न कोई शौक भी होता है। ये बात और है कि बहुत से लोगों को प्रतिभा निखारने का, उसे दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता, इसी तरह बहुत से लोग किसी न किसी कारण से अपने शौक भी पूरे नहीं कर पाते। ऐसी स्थितियों के लिए आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि पक्ष भी जिम्मेवार होते हैं। इसके साथ-साथ व्यक्ति किस स्थान, किस शहर, किस परिस्थिति में रह रहा है, यह भी शौक एवं प्रतिभा के संदर्भ में महती भूमिका निभाते हैं।
बचपन से ही फाउण्टेन पेन से लिखने की आदत बनी और कालांतर में यही आदत शौक के रूप में भी विकसित हो गई। आज भी मोबाइल, कम्प्यूटर के दौर में प्रतिदिन फाउण्टेन पेन से लिखना होता है। लिखने के शौक के साथ-साथ अलग-अलग रंग की स्याही का इस्तेमाल करना भी शौक जैसा ही है। लिखने के साथ-साथ फाउण्टेन पेन का प्रयोग स्केचिंग के काम में, कैलीग्राफ़ी में भी कर लिया जाता है। ऐसे में भी अलग-अलग रंग की स्याही की आवश्यकता होती है।
ऐसे दौर में जबकि पेन का, विशेष रूप से फाउण्टेन पेन का इस्तेमाल कम से कम किया जा रहा हो, उरई जैसी छोटी जगह पर तो यह कमी और भी महसूस की जाती है। इस कमी के बीच फाउण्टेन पेन की स्याही की माँग करना एक तरह की ज्यादती ही कही जाएगी। काली, नीली स्याही की उपलब्धता तो फिर भी हो जाती है पर लाल, हरी स्याही की माँग करना आसमान के तारे माँगने जैसा हो जाता है। इसमें भी हरे रंग की स्याही तो उरई में नामुमकिन स्थिति को प्राप्त कर जाती है। कोरोनाकाल और लाॅकडाउन जैसी परिस्थिति के पहले तो उरई से बाहर कहीं बड़े शहर जाने पर स्याही ले आया करते थे। इस बार न हमारा जाना हो सका और अन्य किसी की सुलभता, सहजता न होने के कारण भी हरे रंग की स्याही उपलब्ध न हो सकी।
इधर हरे रंग की स्याही लगभग समाप्ति पर थी। पिछले दो महीने से उरई की दुकानों के चक्कर लगाए जा रहे थे पर हरी स्याही की उपलब्धता नहीं हो पा रही थी। बिक्री न होने के कारण दुकानदारों की अपनी मजबूरी थी। काफी भागदौड़ और लगभग रोज की पूछताछ के बाद आज अंततः एक दुकान से दो शीशियाँ प्राप्त हो ही गईं। यद्यपि दोनों शीशियों से कुछ स्याही बह भी चुकी है तथापि हाल-फिलहाल लिखने का, स्केचिंग का, कैलीग्राफ़ी का काम बाधित न होगा। समाप्ति की ओर बढ़ती जा रही हरी स्याही के कारण इन कामों को हरे रंग से करना रोकना, कम करना पड़ा था।
आज हरी स्याही का मिलना खुशी दे गया तो उनकी पैकिंग तिथि ने आश्चर्यचकित कर दिया। मई 1997 की पैक ही हुई स्याही को सही ठिकाना मिला जनवरी 2021 में। इस स्याही को धैर्य के साथ इस्तेमाल किया जाएगा और सुरक्षित रख लिया जाएगा क्योंकि एक तरह से ये ऐतिहासिक हरी स्याही हो गई। हरी स्याही मिलने के बाद भी हरी स्याही की खोज जारी रहेगी। वैसे जल्द ही कहीं न कहीं सैर को निकला जाएगा और बोरा भरकर हरी स्याही खरीद ली जाएगी।
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वंदेमातरम्
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (10-01-2021) को ♦बगिया भरी बबूलों से♦ (चर्चा अंक-3942) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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भाई साहब मेरी तो तबीयत हरी हो गई यह पढ़कर इसलिए कि तरह-तरह की स्याही का तो शौकीन मैं भी हूं हरी स्याही तो काफी समय से मेरे पास रखी हुई है नीली और लाल और काली इतने अभी लेकर आया हूं लाल और काली को मिलाकर मैं ब्राउन और मैजेंटा कलर की स्याही भी बना लेता हूं चेन्नई से 2003 में पिंक कलर की स्याही लेकर आया था लेकिन अभी उसे खोला काफी दिनों बाद तो वह एकदम पानी जैसी हो गई है पता नहीं क्या हुआ उसमें जबकि स्याही तो कोलॉयडल सॉल्यूशन होता है उसे खराब नहीं होना चाहिए
जवाब देंहटाएंवाह स्याही पर भक्ति सुंदर आलेख रोचक अभिनव।
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंअरे वाह! यह तो ख़ज़ाना मिलने जैसा है। लाल, नीला, हरा और काला इंक का ख़ूब उपयोग किया जब विद्यार्थी जीवन था। हरा रंग वैसे भी बहुत भाता है। पर हम तो हरे लीड से शौक़ पूरा करते हैं।
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