नववर्ष के उल्लास के बीच से निकल कर सामने आया यह वर्ष अब अपने अंतिम चरण में है. कोरोना वायरस की मारक उपस्थिति के बीच इस वर्ष ने नितांत खालीपन पैदा करने के साथ-साथ बहुत कुछ सिखाने का काम भी किया है. आर्थिक दृष्टि से, रोजगार की दृष्टि से, कामगारों, गरीबों, मजदूरों आदि के नजरिये से देखें तो इस वर्ष में अत्यंत कठिनाई भरे दौर देखने को मिले हैं. बहुत से परिवारों ने अपने प्रियजनों को हमेशा-हमेशा के लिए खोया है तो बहुत से परिवारों में इसका खौफ बना रहा. इस वर्ष को बहुत सारी नकारात्मकता के साथ गुजरने वाला वर्ष कहा जा सकता है.
जैसा कि प्रकृति का नियम है तथा सामान्य जीवन में भी देखने को मिलता है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. प्राकृतिक रूप से भी सुख-दुःख, दिन-रात, धरती-आकाश, माता-पिता, पति-पत्नी आदि जैसी युगल अवधारणा हमारे समाज में उपस्थित है. यही वह अवधारणा है जो सामान्य दिनों में, कष्ट के समय में लोगों का विश्वास बढ़ाती है, उनको संयम प्रदान करती है. इस अवधारणा की सशक्तता को यह जाता हुआ वर्ष भी समझाता हुआ समझ आता है.
कोरोना
की उपस्थिति होने के बाद जब सरकार द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई, उस
समय संभवतः किसी को भी इसका भान नहीं था कि यह कुछ दिनों की नहीं बल्कि महीनों तक
चलने वाली स्थिति होगी. लॉकडाउन के प्रथम चरण के आगे बढ़ने के बाद ही लोगों में
अपने परिवार, अपने परिजनों के प्रति चिंता का भाव बहुत गहराई से दिखाई दिया. जिन
परिवारों के बच्चे बाहर शिक्षा में थे अथवा किसी रोजगार में थे उनको वापस घर लाने
की कवायद होने लगी. जिन परिजनों में बुजुर्ग लोग थे, कहीं तन्हा रह रहे थे उनके
प्रति भी एक तरह की चिंता देखने को मिली थी. परिवार के सक्षम लोग जहाँ एक तरफ अपने
बच्चों के सकुशल घर वापसी की कामना कर रहे थे तो वही लोग दूसरी तरफ अपने घर के
बुजुर्गों के स्वास्थ्य का, उनकी सेहत का ख्याल रख रहे थे.
बुजुर्गों के मामले में बहुतायत में एक अलग तरह की स्थिति इधर विगत कई वर्षों से देखने को मिल रही थी. जन-जीवन सामान्य रूप से गुजरते रहने के कारण परिवार संयुक्त से एकल और फिर एकल से नाभिकीय रूप में परिवर्तित होने लगे थे. इससे भी परिवार के बुजुर्ग व्यक्तियों को अकेलेपन का सामना करना पड़ रहा था. भौतिकता, आधुनिकता, धन की अंधाधुंध दौड़ में बहुसंख्यक लोगों में परिवार के प्रति, अपने बुजुर्ग परिजनों के प्रति उपेक्षा का भाव भी पनपने लगा था. कोरोना की भयावहता के चलते घरों में कैद रहने के कारण लोगों ने अचानक से परिवार के सदस्यों की अहमियत को समझना शुरू किया.
अधिकांशतः देखने में आता है कि जब कोई हमारे साथ होता है, हमारी नज़रों के सामने होता है, हमारी पहुँच में होता है तब हमें उसकी कदर नहीं होती है. यह स्थिति व्यक्ति, वस्तु, समय आदि सभी के लिए एकसमान रूप से प्रभावी होती है. हमारे पास जिसकी उपलब्धता होती है, उसकी फ़िक्र हम नहीं करते हैं. ऐसा अपने घर-परिवार के बुजुर्गों के मामले में बहुत होता है. उनके हमारे साथ रहने की स्थिति में हमें उनके अनुभवों का, उनके ज्ञान का, उनके कार्यों का भान होते हुए भी उसके बारे में विचार करने का, उनसे सीखने का जरा भी एहसास नहीं होता है. उम्र, समय, कार्यों, अनुभव आदि से बहुत अधिक सक्षम हमारे बुजुर्ग हमारे लिए एक अनमोल खजाना होते हैं, एक परिपक्व संस्थान की भांति हमारे साथ होते हैं मगर हम अपने में मगन उनसे लाभ नहीं ले पाते हैं.
आधुनिकता, भौतिकता की दौड़ में शामिल होकर बुजुर्गों के प्रति एक तरह का उपेक्षा का भाव समाज में दिखाई देने लगा था. भले ही घर-परिवार में बुजुर्गों को यथोचित सुख-सुविधाओं का ढेर लगा दिया जाये मगर उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने-जुलने, उनके साथ समय बिताने के मामले में कमी आई थी. लॉकडाउन अवधि ने परिवार के सभी सदस्यों को एकसाथ रहने पर विवश किया. इस दौरान नई पीढ़ी के लोगों ने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करती पीढ़ी ने भले ही वर्क फ्रॉम होम के द्वारा अपने काम की पूर्ति की हो मगर उंनका सम्बन्ध अपने परिजनों से बना रहा. वीकेंड जैसी शब्दावली में उनका सामना इस दौरान बाजार से नहीं बल्कि घर के लोगों से हुआ, परिवार के अनुभवी बुजुर्गों से हुआ. यह इस नकारात्मक अवधि की सकारात्मकता ही कही जाएगी.
अब जबकि लॉकडाउन के कारण घर में एकसाथ रहने पर लोगों में, विशेष रूप से आधुनिक जीवन-शैली के प्रति दीवानगी की हद तक पागल होकर भागती पीढ़ी ने भी संबंधों का, रिश्तों का महत्त्व समझा है. इस पीढ़ी को घर के बुजुर्गों के अनुभवों, उनकी शिक्षाओं, कार्यों के प्रति सजग बनाये रखने की आवश्यकता है. कोरोना का भयावह काल आज नहीं तो कल समाप्त होगा ही किन्तु इस अवधि में जिस तरह की आत्मीयता परिवारों में बनती दिखाई दी, बुजुर्गों के प्रति सकारात्मकता दिखाई दी, उसे निरंतरता दिया जाना समय की माँग है. विचार इसी बात पर किया जाना चाहिए कि घर के बुजुर्ग स्वयं को अकेला न महसूस करें. परिजनों को भी चाहिए कि वे अपने बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ अपनी जीवन-शैली को सरल बनाने में, अपने कार्यों को और अधिक प्रभावी बनाने में लेने का प्रयास करें. जीवन में बहुत से पल ऐसे आते हैं जबकि व्यक्ति के सामने असमंजस की स्थिति होती है. ऐसी स्थिति में बहुत बार बुजुर्गों के अनुभव ही सहायक बनते हैं. यह हम सभी ने अनुभव कर लिया है कि आप कुछ भी क्यों न हो जाएँ मगर आपको मानसिक संबल परिजनों द्वारा ही प्राप्त होता है. ऐसे में समय के साथ इस शक्ति को बचाए रखा जाना चाहिए.
आज समय की, समाज की जैसी माँग है उसके अनुसार खुद को आधुनिक बनाना अपराध नहीं, खुद के लिए भौतिकता के संसाधनों का इस्तेमाल करना, उनका जुटाना दोष नहीं है मगर इसमें ध्यान इसका रखा जाना चाहिए कि संसाधनों के जुटाने में कहीं परिवार की असल सम्पदा तो नष्ट नहीं हो रही. घर का वास्तविक खजाना तो बेकार नहीं हो रहा.
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