अपने आपको तीसमारखां समझने वाला एक नेता टाइप युवक अपने समर्थकों सहित घूमते हुए एक गाँव जा पहुँचा. समर्थकों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए उसने कहा कि देखो अभी सिद्ध करके बताता हूँ कि गाँव के लोग बेवकूफ होते हैं. ऐसा कह कर वह गाँव में बनी एक दुकान पर जा पहुँचा. दुकान में एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे थे. उस युवक ने उनको पैंतीस रुपये का एक नोट देते हुए कहा कि बाबा जरा इसके खुले पैसे दे दो.
बुजुर्ग नोट देखकर बोले, बेटा ये नोट तो नकली है. पैंतीस रुपये का कोई नोट होता ही नहीं है.
तब वह युवक बड़े ही घमंड में बोला, बाबा ये पैंतीस रुपये का नोट अभी शहर वालों के लिए आया है. गाँव तक आने में समय लगेगा.
बुजुर्ग ने सहमति में सिर्फ हिलाया और फिर अपनी संदूकची से कुछ नोट निकाल कर उस युवक को दिए.
युवक ने देखा कि बुजुर्ग द्वारा दिए गए रुपयों में एक सत्तरह रुपये का और एक अठारह रुपये का नोट है. उसने कहा, बाबा ये क्या? एक सत्तरह का और एक अठारह का, ये तो नकली हैं.
बुजुर्ग ने मुस्कुराते हुए कहा, नहीं बेटा ये नकली नहीं. सरकार ने अभी ये गाँव वालों के लिए ही छपवाए हैं. शहर तक आने में समय लगेगा.
सोच सकते है कि उस युवक की क्या हालत हुई होगी अपने समर्थकों के बीच. मगर समर्थक तो समर्थक ही होते हैं. वे फिर भी उसके साथ हँसते-मुस्कुराते, उसके नारे लगाते आगे बढ़ गए. ऐसा ही कुछ आजकल समाज में हो रहा है. सब अपने-अपने नकलीपने को समाज में चलाने में लगे हैं. दूसरों को आरोपित करने में लगे हैं. और हाँ, सबके समर्थक बस नारेबाजी में मगन हैं, खुश हैं.
इसे महज एक हास्य-कथा समझकर पढ़ने और भूल जाने की गलती न करियेगा. देखिये अपने आसपास, कुछ इसी तरह का घटनाक्रम चल रहा है. सभी बस अपनी ही बात को सही साबित करने की कोशिश में लगे हैं. कोई भी अपनी बात के अलावा सामने वाले की बात को न सुनना चाहता है, न समझना चाहता है. इसी कारण से समाज में एक तरह की आभासी स्थिति बनती जा रही है. कैसे भी बस बात मान ली जाये, इस सोच के चलते व्यक्ति अपनी बातों को, झूठी बातों को भी ऐसे आवरण में लपेटता हुआ प्रस्तुत करता है मानो वही एकमात्र सत्य हो. इसी के चलते सब तरफ से नकली-नकली का खेल खेला जाने लगता है. इसी नकलीपन के चलते समाज में रिश्तों में, संबंधों में, भावनाओं में, बातों में एक तरह का नकलीपन देखने को मिलने लगा है. इसे कैसे दूर किया जा सकता है, यह भी हम सभी को तय करना है.
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