28 नवंबर 2020

रिश्ते अनमोल हैं, उनका कोई नाम नहीं

भारतीय राजनीति में राजमाता के रूप में सम्मानजनक रिश्ता बनाने वालीं विजयाराजे सिंधिया जी की आत्मकथा आज हमें आशीर्वाद देने को प्राप्त हुई. उनके यथार्थ का प्रतिबिम्ब बनती राजपथ से लोकपथ पर को देखकर बहुत सी यादें ताजा हो गईं. जनमानस के लिए राजमाता हमारे लिए बुआ जी रहीं. यह रिश्ता भी ऐसा रहा जो किसी सम्बोधन से मुक्त समझा-माना जा सकता है. एक पल को सोचिए कि जिनको हम बुआ पुकारते हों, उनके भाई-भाभी को हम मामा-मामी कहते हों, कैसा महसूस होगा आपको? कुछ इसी तरह का रिश्ता बना हुआ है उस परिवार से.




आपकी राजमाता, हमारी बुआ जी जनपद जालौन से सम्बन्ध रखती हैं. उनका मायका यहीं है और परिजन उरई में निवास करते हैं. इस परिवार से हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता आजतक बना हुआ है. चलिए, पारिवारिक इतिहास-भूगोल के स्थान पर वो बात जो हम कहने यहाँ आये हैं. बुआ जी के भाई श्री सुरेन्द्र सिंह मोना उरई में ही सपरिवार रह रहे हैं. हम बचपन से उनका अपने घर आना-जाना देख रहे हैं. उनका आना हम छोटे बच्चों के लिए इसलिए भी सुखद होता था क्योंकि वे पिताजी से मुलाकात करने के बाद जब चलने को होते तो हम भाइयों सहित मोहल्ले के बच्चों को अपनी जीप में बिठाकर एक चक्कर लगवाते थे. पिताजी को वे अपने छोटे भाई की तरह मानते रहे और हम लोग तब उनको कभी मोना अंकल, कभी मोना ताऊजी कहते थे.


जब हम छोटे थे तो एकाधिक बार पिताजी के साथ अंकल के घर जाना हुआ, उस समय की बहुत याद नहीं है मगर एक बार उस समय जबकि हम इंटरमीडिएट में थे, किसी काम से घर गए. अंकल से अपनी धर्मपत्नी से हमारा परिचय करवाया. हमने अपने पारिवारिक रिश्तों के चलते मोना अंकल के चरण स्पर्श किये और आगे बढ़कर जैसे ही आंटी के पैर छूने चाहे तो उन्होंने मना कर दिया. पहले तो हमारी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्या हो गया हमसे कि आंटी ने पैर छूने से रोक दिया मगर अगले ही पल सारी बात समझ आ गई. असल में मोना अंकल हमारे ननिहाल के पास के गाँव के हैं, साथ ही हमारे एक मामाजी के अभिन्न मित्रों में रहे हैं. वे हमारे मामा लोगों को अपने सगे भाइयों तरह मानते रहे हैं. यह रिश्ता आंटी को ज्ञात था ऐसे में उन्होंने मोना अंकल से उस दिन साफ़-साफ़ कहा कि वे भले ही हमसे पैर छुवाएँ, अंकल कहलवाएं मगर वे न पैर छूने की, न आंटी कहने की अनुमति देंगीं. उस दिन से हम उनको मामी सम्बोधित करते रहे.


बचपन में जब भी पिताजी के साथ राजमाता से मिलना हुआ तो पिताजी उनको जिज्जी कहते थे और हम बुआ जी. वही सम्बोधन बराबर बना रहा. बुआ जी से स्वतंत्र रूप से मिलना उस समय हुआ जबकि हम ग्वालियर से बी०एससी० कर रहे थे. हमारे हॉस्टल वार्डन चंदेल साहब ने उनसे मिलवाया, पिताजी का परिचय दिया उसके बाद उनके ग्वालियर आने पर बुआ जी हमें बुलवा लेतीं. बहुत स्नेह के साथ मिलतीं, उरई की जानकारी लेतीं, अपने परिचित सभी लोगों के हालचाल लेतीं. उन्होंने कभी हमारे बुआ कहने पर कुछ नहीं कहा सो उनको बुआ ह कहते रहे. मोना अंकल ने भी अंकल कहने पर कोई आपत्ति न की तो उनको आजतक अंकल ही कहते हैं. उनकी धर्मपत्नी ने आंटी कहने पर अपनी असहमति व्यक्त की तो वे हमारे लिए आज भी मामी जी के रूप में स्मृतियों में बसी हैं.


आज उस घर में मोना अंकल की तीसरी पीढ़ी युवावस्था में है मगर हमें पहले जैसा ही स्नेह भाइयों, भाभियों, बच्चों से मिलता है. यह संबंधों, रिश्तों की पावनता, विश्वास और संस्कारों की बात होती है कि जहाँ खून का रिश्ता न हो वहाँ रक्त-सम्बन्धियों से अधिक मजबूत रिश्ता तीन-तीन पीढ़ियों तक चलता रहे. सच ही है कि रिश्तों का नाम सिर्फ पहचान के लिए होता है अन्यथा रिश्ते अनमोल हैं, उनका कोई नाम नहीं, कोई सीमांकन नहीं.


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