28 अगस्त 2020

पत्रिकाएँ बंद होती रहेंगी, हम स्यापा करते रहेंगे

आज सोशल मीडिया कादम्बिनी और नंदन पत्रिकाओं के बंद किये जाने की सूचना से आहत दिखाई दिया. बहुतों की पोस्ट से आँसू भी बहते नजर आये. समझ नहीं आया कि इन पत्रिकाओं के बंद होने का ये दुःख वास्तविक है या फिर सोशल मीडिया के प्रदर्शनकारी मंच पर सबको यह दिखाना है कि हम इन पत्रिकाओं के कितने बड़े प्रशंसक हैं? जिस अनुपात में सोशल मीडिया में इन पत्रिकाओं के पक्ष में पोस्ट दिखाई दीं यदि बस उतने लोग ही इन दो पत्रिकाओं के पाठक हो जाते तो इनके बंद होने की स्थिति कतई नहीं आई होती. इस बात को हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि विगत कई वर्षों से हम भी एक लघु-पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर रहे हैं, वह भी बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के. कादम्बिनी, नंदन पत्रिकाओं का प्रकाशन समूह कोई आर्थिक स्थिति से कमजोर लोगों का समूह नहीं है. ऐसे में इन पत्रिकाओं को बंद करने का कारण महज आर्थिक नहीं है.


आज जो लोग सार्वजनिक प्रचार-प्रसार के मंच पर स्यापा फ़ैलाने में लगे हैं, उनमें से कितने लोग होंगे जिन्होंने विगत एक वर्ष में ही इन दोनों पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ा होगा? मुश्किल से दो-चार व्यक्ति ऐसे मिल जाएँ तो बहुत बड़ी बात है. तकनीक के दौर में जहाँ अब लोग प्रकाशित सामग्री से दूरी बनाते जा रहे हैं, लोगों के सामने तमाम वेबसाइट और किंडल संस्करण बेहतर विकल्प के रूप में उपस्थित है तो लोग पत्रिकाओं के खरीदने का कष्ट क्यों करेंगे? विगत वर्षों में लोगों का रुझान पढ़ने से जिस तरह हटा है, जिस तरह प्रकाशित सामग्री से पाठक दूर हुआ है उसने बहुत कुछ स्पष्ट कहानी रच दी है. इनके साथ-साथ एक और स्थिति स्पष्ट देखने को मिल रही है कि अब व्यक्ति न तो स्वयं पढ़ने के प्रति लालायित दिखाई दे रहा है और न ही अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है. जो चंद लोग पढ़ने के प्रति जागरूक दिखाई देते हैं वे भी ऑनलाइन सामग्री को वरीयता देते दिख रहे हैं. ऐसे में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति दोयम दर्जे की होनी ही है.


पाठकों की कमी का कारण क्या है, इसे खोजा जाना आवश्यक है. यदि ये कहा जाये कि पढ़ने वालों की संख्या में एकदम से गिरावट आ गई है या फिर ये कहा जाये कि पुस्तक पढ़ने के शौक़ीन अब नहीं रहे तो यह भी झूठ होगा. ये भी कहना गलत होगा कि हिन्दी पाठक अब कम हो गए हैं. ऐसा इसलिए कि यदि पढ़ने वालों की संख्या में गिरावट आ गई होती, प्रकाशित सामग्री के प्रति लोगों का रुझान न के बराबर होता, हिन्दी पाठकों की संख्या कम हो गई होती तो फिर किसी अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद क्यों लाखों प्रतियों में बिकता? अभी हाल के कुछ वर्ष इसके उदाहरण हैं जबकि ऐसी पुस्तकों की बिक्री लाखों प्रतियों में रही है. ये प्रकाशित प्रतियाँ मँहगे दामों में भी लगातार बिकती रही हैं. ऐसे में कुछ न कुछ तो है जिसे न तो प्रकाशक समझ पा रहे हैं और न ही पाठक इसे समझना चाहते हैं.

जहाँ तक हमारा अपना अनुमान है कि पत्रिकाओं के प्रति लोगों का झुकाव कम अवश्य हुआ है. पत्रिकाओं को यदि मासिक ही मान लिया जाये तो प्रतिमाह खरीदना किसी आम पाठक को एक बोझ सा समझ आने लगा है. बच्चों की पत्रिकाओं के प्रति अब पहले जैसा रुझान देखने को नहीं मिलता है. प्रकाशन के मंहगे होने ने भी पाठकों को पत्रिकाओं की तरफ से दूर किया है. पत्रिकाओं का मंहगा होना, उनके संग्रहण की समस्या होना, पत्रिकाओं का समय निकल जाने के बाद उनका समुचित मूल्य न मिलना, पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने से ज्यादा माँगकर पढ़ने की प्रवृत्ति रखने ने भी पत्रिकाओं के सामने संकट उत्पन्न किया है.

इन दो पत्रिकाओं के बंद हो जाने के बाद और कितनी पत्रिकाएँ बाजार में शेष हैं बंद होने को, इसकी गिनती की जानी चाहिए. इस हालत के बाद भी न पाठक सुधरने वाले और न ही प्रकाशन समूह. हम बच्चों में पुस्तकें पढ़ने की आदत को विकसित नहीं कर सकेंगे, ये भी परम सत्य है. हम स्वयं अपनी पुरानी आदत को फिर से जिन्दा नहीं कर सकेंगे, ये भी परम सत्य है. ऐसी स्थिति में अपार खर्च उठाकर कोई भी समूह पत्रिकाओं का निरंतर प्रकाशन नहीं करेगा, ये भी परम सत्य है. इस तमाम सत्यों के बीच एक सत्य यह है कि हिन्दी साहित्य का हाल हम हिन्दी भाषियों ने ही बुरा किया है. हम ही इसके लिए दोषी हैं, हम ही जिम्मेवार हैं.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सही कहा आपने। जब से ऑनलाइन पत्रिका का दौर शुरू हुआ प्रिंट संस्करण की बिक्री पर बहुत असर पड़ा। अब के बच्चे तो सबकुछ नेट से ही पढ़ते हैं। नंदन हम बचपन में पढ़ते थे, इसलिए दुख हुआ। लेकिन यह भी सच है कि बड़े होने पर कभी नंदन नहीं ख़रीदी। हमारे समय के सभी के साथ यही हुआ होगा। कितनी पत्रिकाएँ बंद हो गईं। किस किस का दुख करें।

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