आज
सोशल मीडिया पर एक खबर पढ़ने को मिली जो एक वृद्ध महिला से सम्बंधित थी. जिस महिला
के बेटे-बेटी और नाती-पोते उच्चाधिकारी हों, प्रशासनिक पदों पर हों उसे अपना जीवन
सड़कों पर, धूल में गुजारना पड़ रहा हो तो यह केवल उस परिवार के लिए कलंक की बात है.
सामाजिक मूल्यों के रूप में इस घटना को देखा जाये तो यह समूचे समाज के लिए भी कलंक
की बात है. सड़क किनारे जीवन बिताती उस वृद्धा की देह में कीड़े तक पड़ गए हैं मगर
उसकी देखभाल के लिए कोई नहीं है. जबसे उस खबर को देखा है तबसे मन-मष्तिष्क में
अजीब सी हलचल मची हुई है. समझ नहीं आ रहा है कि हम सबने समाज को किस दिशा में ले
जाने का काम किया है? क्या हम समाज में सिर्फ धन उगाने की मशीन बनकर रह गए हैं?
क्या हम सबके लिए संस्कार, संस्कृति, सभ्यता आदि की बातें महज किताबी, मंचीय रह गई
हैं? यदि ऐसा न होता तो उस वृद्धा को केवल अपने परिवार के भरोसे नहीं रहना पड़ता.
आये
दिन बैनर, होर्डिंग आदि के द्वारा समाज में बड़े-बड़े समाजसेवियों के दर्शन हो जाते
हैं. ऐसे समाजसेवी हैं भी जो वास्तविक रूप में कार्य भी कर रहे हैं मगर वे असली
समाजसेवी भी ऐसे समय में क्यों नहीं दिखाई देते हैं? अभी कोरोना के चलते हुए
लॉकडाउन में बहुत से लोग थोक के भाव से खाना बाँटते दिखाई दे रहे थे. देश भर का
कोई भी राज्य, कोई भी शहर, क़स्बा ऐसा नहीं रहा होगा जहाँ ऐसे काम करने वालों की
बाढ़ न आई हो. ऐसी स्थिति के बाद भी उस वृद्धा के पास कोई किस कारण नहीं पहुँचा? या
फिर उसके पास पहुँचने की किसी ने कोशिश नहीं की? संभव है कि उस महिला तक मदद
पहुँचाने में किसी तरह का कोई प्रचार न होना हो. संभव है कि वायरस वाली बीमारी के
इस माहौल में उस महिला के पास पहुँचने में खुद के बीमार होने का खतरा दिखाई देने
लगा हो. कुछ न कुछ तो ऐसा है जिसने उस महिला तक मदद न पहुँचने दी.
इस
पूरी खबर के साथ याद आये समाज के वे तमाम सारे कदम जिनमें वैश्विक समुदाय के साथ
कदमताल करने की जद्दोजहद में हम भारतीय भी पूरे जीजान से लगे हुए हैं. पश्चिमी
सभ्यता के सुर-लय को पकड़ने की कोशिशों में हमने पहनावा, रहन-सहन,
शालीनता, संस्कृति, भाषा,
रिश्तों, मर्यादा आदि तक को दरकिनार करने से
परहेज नहीं किया है. अनेकानेक ‘डे’ज’
के मस्ती भरे आयोजनों के बीच पश्चिम से आये संस्कारों ने हम सभी को
संस्कार-विहीन कर दिया है.
इन
विदेशी संस्कारों की चकाचौंध में हमारे परिवारों की दिव्यता कहीं गायब ही हो गई
है. युवाओं की जोशपूर्ण मस्ती के बीच परिवार के, समाज के
बुजुर्गों की हस्ती सिमटने सी लगी है. निर्द्वन्द्व, स्वच्छंद
भटकते झुण्ड के बीच बुजुर्ग एकाकीपन में पिसता सा लगता है. पश्चिमी
सभ्यता, संस्कारों को अपनाने के बाद भी हमें अपने मूल को नहीं भूलना चाहिए.
बुजुर्गों की अहमियत को विस्मृत नहीं करना चाहिए. जिस वृद्ध महिला की बात आरम्भ
में की थी, उसकी मेहनत का परिणाम है कि उसके बेटे-बेटी, नाती-पोते आज उच्च पदों पर
हैं. क्या उन सबको यह सफलता सिर्फ पश्चिमी आयोजनों में थिरकने मात्र से मिल गई
होगी? ऐसे में किसी भी परिवार के युवाओं का दायित्व बनता है कि वे अपने
अति-व्यस्ततम समय में से कुछ समय निकाल कर अपने परिजनों को भी दें. इस कोरोना काल
में इसका एहसास भली-भांति सबको ही हुआ है कि अंततः उनका परिवार ही उनके काम आया.
ऐसे में भी यदि उस वृद्ध महिला को अपना जीवन सड़क किनारे बिताना पड़ रहा है तो यह
समूची सभ्यता, संस्कारों पर दाग है.
आज
एहसास और विश्वास की मर्यादा-पावनता को हम अपने परिवार के बुजुर्गों के बीच भी
बाँटने का प्रयास करने की आवश्यकता है. आधुनिकता के दौर में चाहे कुछ कितना भी बदल
गया हो पर हमें विश्वास को नहीं बदलने देना है, एहसास को
नहीं बदलने देना है, रिश्तों को नहीं बदलने देना है, मर्यादा को नहीं बदलने देना है, संस्कृति को नहीं
बदलने देना है. दोस्ती के नाम पर मस्ती में चूर आज की पीढ़ी को इसका आभास कराये
जाने की जरूरत है कि बुजुर्ग उनके लिए बोझ नहीं, उनकी रफ़्तार
में अवरोध नहीं, उनकी मस्ती की बोरियत नहीं हैं. अपनी
संस्कृति-सभ्यता से विरत हो रहे, परिवार को बंधन समझ रहे,
ज़िम्मेवारियों से मुक्ति चाह रहे युवा वर्ग को समझाना ही होगा कि
बुजुर्ग हमारा एहसास हैं, हमारा विश्वास हैं, हमारी संस्कृति हैं, हमारा परिवार हैं, हमारा अस्तित्व हैं. आइये कम से कम दोस्ती के नाम का एक दिन तो इनके नाम
कर ही दें, बाकी दिन तो अपने हमउम्र दोस्तों के साथ
मौज-मस्ती, सैर-सपाटा, गलबहियाँ करते
हुए बिताना ही है.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
उपयोगी आलेख।
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