05 जून 2020

कमजोर आत्मविश्वास से सच न हो सके बहुत से सपने

स्नातक स्तर तक की पढ़ाई पूरी न हो सकी थी कि पिताजी का आदेश मिला कि वापस घर आ जाओ, आगे नहीं पढ़ाना है. उस समय हम स्थिति समझ सकते थे. घर से पढ़ने के लिए ग्वालियर पहुँचे और वहाँ पढ़ने से ज्यादा नाम सामने आने लगा लड़ाई-झगडा करने में. कहते हैं न कि बद अच्छा, बदनाम बुरा. कुछ नाम वास्तविक रूप में हुआ तो कुछ में नाम काल्पनिकता का शिकार होकर सामने आया. चर्चा उसकी नहीं क्योंकि उन दिनों की अपनी ही एक अलग कहानी है जिस पर घंटों लिखा-बताया जा सकता है. जैसा कि पिताजी का आदेश था बिना किसी विरोध के घर आ गए. आगे की पढ़ाई के रूप में लॉ करने का विचार था या फिर सांख्यिकी से परास्नातक करने का. दोनों में कुछ सहमति सी न दिखी तो सिविल सर्विस की तैयारियों की तरफ ध्यान लगाने की कोशिश की. इसी बीच फ़िल्मी कीड़ा काटने लगा.


उरई जैसे शहर में आने के बाद इस कीड़े के काटने का कोई इलाज भी नहीं था. जिस तरह का माहौल यहाँ दिख रहा था उसमें कुछ नाटकों और कुछ नुक्कड़ नाटकों के द्वारा ही संतुष्टि का एहसास किया जा सकता था मगर आगे बढ़ने जैसा कुछ हिसाब समझ नहीं आ रहा था. कुछ महीनों की भागदौड़ के बाद यहाँ का सांस्कृतिक माहौल भी समझ आने लगा. ऊपरी तौर पर भले ही सब एक मंच पर दिखाई पड़ते हों मगर अंदरूनी रूप से, अपने बैनर के रूप में सभी अलग-अलग विचारधाराओं के पोषक थे. इनके साथ बहुत लम्बा समय नहीं बीत सकता था या कहें कि अपने काटे कीड़े का इलाज यहाँ नहीं समझ आ रहा था.


उन्हीं दिनों एक जगह विज्ञापन दिखाई दिया किसी विज्ञापन कंपनी का. मित्रों के सुझाव के साथ विचार किया गया कि यदि एक बार इस क्षेत्र में घुसना हो गया तो शायद आगे का रास्ता भी यहीं से मिल जाये. विज्ञापन की कुछ शर्तों को पूरा करने के लिए फोटो की आवश्यकता थी. अपने फोटोग्राफी के शौक और सेन्स को प्रयोग में लाने का विचार बनाया. एक दोस्त के कैमरे में रील डालकर खुद को निर्देशित करते हुए, खुद के लिए कैमरामैन बने. आनन-फानन पाँच-दस फोटो निकालकर उनको जल्द से जल्द बनवाया गया. जिस दिन सारी औपचारिकतायें पूरी करके फॉर्म को पोस्ट किया उस दिन से न जाने कितनी सफल फिल्मों के हीरो हम नजर आने लगे.

इतना सारा काम घर में बिना किसी की जानकारी में आये हुआ. उसके बाद का दौर किसी खतरनाक फिल्म की तरह से हमारे सामने आया. एक दिन पिताजी की अदालत में पुकार लगी. बिना किसी गवाह, सबूत के हमें उपस्थित होना पड़ा. उनके हाथ में एक लिफाफा चमक रहा था जो हमारे अपराध की गवाही खुद दे रहा था. उस लिफाफे के साथ-साथ जाने कितनी तरह की बातें हमारे हाथ में रख दी गईं. विज्ञान स्नातक की पढ़ाई का मंतव्य सिद्ध करने को कहा गया, सिविल सेवा की तैयारियों का मतलब बताने को कहा गया, नाचने-गाने को सामाजिकता की श्रेणी में शामिल करने के आधार को बताने को कहा गया.

एक हम चुपचाप सिर झुकाए अपने विज्ञान स्नातक होने का कथित अहंकारी गर्व लिए खड़े रहे. हमारे पास कोई तर्क नहीं थे, सिवाय आज्ञा पालन करने के. वो फॉर्म बरसों हमारे पास सुरक्षित रहा, इस सबूत के साथ कि पहली स्टेज में हम पास हो गए थे. आगे के लिए मुंबई जाना था, कुछ फोटोशूट और अन्य औपचारिकताओं को करना था. फिर एक दिन बहुत सारे फालतू कागजातों के साथ उस फॉर्म और उसके साथ आये पत्र को भी मकान के सामने बहती नाली में प्रवाहित कर दिया. वो पत्र मर गया, वो फॉर्म बह गया मगर आज तक वो कीड़ा न मरा, आज तक वो कीड़ा कहीं और नहीं गया.

बहुत सी बातें हैं जो आज तक समझ आती रहीं, नहीं भी समझ आती रहीं मगर एक बात ये समझ न पाए कि क्या हम डरपोक निकले? क्या हमारे अन्दर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पारिवारिक निर्णयों के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत न थी? क्या हमारे अन्दर किसी विश्वास की कमी थी जो हम पिताजी के उस निर्णय का विरोध न कर सके? क्या हम अन्दर ही अन्दर कमजोर थे? ऐसा इसलिए क्योंकि यह उसी एक निर्णय पर नहीं हुआ वरन हमारे साथ एकाधिक मामलों में, बहुतायत विषयों पर ऐसा हुआ. अब लगता है कि उस जैसे अनेक पारिवारिक निर्णयों पर हमारी चुप्पी हमारे आज्ञाकारी होने का नहीं वरन हमारे कमजोर आत्मविश्वास की परिचायक है. ऐसी अनेक चुप्पियों का परिणाम आज भी हम ही भोग रहे हैं.

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