मानव शरीर में दिल और दिमाग, दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है.
दोनों के अपने निर्णय होते हैं और जीवन के फैसलों में दोनों के निर्णयों को
एक-दूसरे पर हावी नहीं होने देना चाहिए. किसी भी व्यक्ति के जीवन में कठिन
स्थितियों में, नकारात्मक स्थितियों में, विवाद की स्थितियों में, तनाव के समय में
दिल की जगह दिमाग की बातों को महत्त्व देना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि दिल के
निर्णय मूल रूप से भावनात्मक एहसास पर आधारित होते हैं. जबकि दिमाग तर्क-क्षमता के
द्वारा सही-गलत को परिभाषित करते हुए अपना निर्णय देता है.
दिल का सम्बन्ध सदैव से भावनात्मकता से रहा है. उसके द्वारा
लिए गए निर्णय विवेकपूर्ण होने से ज्यादा संवेदनात्मक होते हैं. उसका विवेक
संबंधों, रिश्तों एहसासों को प्राथमिकता देते हुए व्यक्ति को कार्य करने को
प्रेरित करता है. ऐसा नहीं है कि दिल के द्वारा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में किसी
तरह की त्रुटि होती है अथवा उसका व्यक्ति के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
उसके द्वारा मन-मष्तिष्क को भी निर्णय लेने सम्बन्धी दिशा प्राप्त हो जाती है
क्योंकि दिमाग भी कहीं न कहीं दिल के निर्णयों पर अपने विवेक का प्रयोग करते हुए
सही-गलत को परिभाषित करता है.
किसी भी व्यक्ति द्वारा निर्णय लेने सम्बन्धी स्थिति में दिल
और दिमाग दोनों ही सक्रिय हो जाते हैं. इस स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन, अपने
भविष्य, अपने समय के अनुसार विवेकपूर्ण ढंग से विचार करता है कि उसके लिए अंतिम
रूप से क्या सही है. उसी के अनुसार वह निर्णय लेता है. यही वह स्थिति होती है जबकि
व्यक्ति के जीवन, भविष्य, कठिन स्थिति, नकारात्मकता, निराशा आदि दशाओं में दिमाग
के निर्णयों की विजय हो जाती है. इसे ऐसे समझा जा सकता है जैसे किसी व्यक्ति के
बहुत ही करीबी व्यक्ति के विवाह का आयोजन है और वह व्यक्ति किसी प्राकृतिक आपदा के
कारण जाने में असमर्थ है. ऐसी विषम स्थिति में उसका दिल उसे जाने को प्रेरित करता
है मगर दिमाग विवेकपूर्ण निर्णय लेते हुए उसे सही, गलत स्थिति समझाते हुए जाने से
रोकता है. निश्चित है कि ऐसे विषम समय में व्यक्ति अपने जीवन की गंभीरता को ध्यान
में रखते हुए विवाह आयोजन में न जाने का निर्णय करता है.
किसी भी इन्सान को गंभीरता की स्थिति में जबकि उसे दिल और
दिमाग में से किसी एक को चुनना पड़े तो उसे याद रखना चाहिए कि उसके निर्णय का क्या
और कैसा असर होने वाला है. यदि उसके निर्णय का असर किसी व्यक्ति के कैरियर, उसके
भविष्य, उसके जीवन पर पड़ने वाला है तब उसे अपने दिमाग की तार्किकता को महत्त्व
देना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि दिल विशुद्ध रूप से भावनात्मकता को वरीयता देता है
जबकि दिमाग का ज्ञान मानसिक, शैक्षिक, तार्किक,
बुद्धिमत्ता से समूची स्थितियों का आकलन कर निर्णय करता है.
इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि दिल के निर्णयों का महत्त्व नहीं.
किसी भी रूप में दिल के विवेक पर दिमाग को हावी करना नहीं है क्योंकि जीवन में
दोनों का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है. बिना दिल-दिमाग के कोई भी इन्सान सकारात्मक
रूप से किसी स्थिति पर, किसी विचार पर आगे नहीं बढ़ सकता है. मूल रूप से दिल और
दिमाग एक-दूसरे से अंतर्सम्बंधित होते हैं. बहुत सी स्थितियों में दिमाग के
निर्णयों पर दिल के निर्णयों का भी प्रभाव होता है. जब कोई व्यक्ति अपने परिवार के
बारे में, अपने अभिभावकों के बारे में, अपने बच्चों के बारे में निर्णय लेने की
स्थिति में होता है तब वह दिल के ज्ञान को दिमाग के विवेक पर वरीयता देता है. भले
ही ये कहा जाये कि बात अपने दिल की सुननी चाहिए परन्तु तार्किक रूप से उसका आकलन
दिमाग से करते हुए निर्णयों का सम्मान करना व्यक्ति का दायित्व होना चाहिए.
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(हालाँकि ये पोस्ट पुरानी है मगर आज खुद के दिल-दिमाग की स्थिति में तालमेल, समन्वय की जगह द्वंद्व दिख रहा था. ऐसे में ये पोस्ट याद आई तो इसे फिर प्रकाशित कर दिया.)
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
उपयोगी आलेख।
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