25 अप्रैल 2020

भाँग की भाव-भंगिमा में शरारतें

फुर्सत में फोटो एल्बम देख रहे थे. उसी में कुछ फोटो होली की दिख गईं. होली, दीपावली पर सभी चाचा लोग उरई आया करते थे. खूब धमाल हुआ करता था. उन्हीं होली की फोटो देखकर उनसे जुड़ी कहानियों, शैतानियों की चर्चा छिड़ गई. बात-बात में भाँग खाने की कहानियाँ सुनाई जाने लगीं. उसी में अपने भाँग खाने का एहसास याद आ गया. हमने सबसे पहली बार भाँग होली के तीन-चार दिन पहले खाई थी. हम उस समय साइंस कालेज, ग्वालियर में पढ़ा करते थे और छात्रावास में रह रहे थे. होली की छुट्टी होने वाली थीं और संयोग से छुट्टी के ठीक पहले रविवार पड़ा. हॉस्टल में होता यह था कि मैस में रविवार को शाम की छुट्टी रहती थी और दोपहर के भोजन में पक्का खाना यानि कि सब्जी, पूड़ी, खीर, रायता, पापड़ आदि हम छात्रों को मिलता था. उस वर्ष हम कुछ छात्रों ने और हमारे दो-तीन भाईसाहब लोगों ने विचार बनाया कि खीर में ही भाँग मिला दी जाये.


जैसा कि तय हुआ बिना अन्य किसी को बताये खीर में भाँग मिलाई गई. चूँकि हमारा सोमवार को एक प्रैक्टिकल था, इस कारण हमने खाना खाया और उसमें खीर कम खाई. इसके पीछे कारण ये था कि घर में कई बार सुन रखा था कि भाँग खाने के बाद आदमी का अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रह जाता. वह जो भी कार्य करता है तो उसे बस करता ही जाता है. डर ये था कि कहीं हम कुछ गलत-सलत कर बैठे और प्रैक्टिकल न दे पाये तो बहुत बुरा होगा. बहरहाल हमने खीर बहुत नहीं खाई थी, सो भाँग के मजे बजाय अपने के दूसरों के लिये. हमारे अन्य दूसरे साथियों ने काफी हंगामा किया. रेलवे स्टेशन तक दौड़ते जाना, वहाँ जाकर हॉस्टल के कुछ भाइयों को रँगना, हॉस्टल में बड़े भाईसाहब लोगों को नाम से पुकारते हुए उन्हें नाचने के लिए कहना आदि बहुत मजेदार था. उस समय एक गाना खूब हिट था, तिरछी टोपी वाले, ओए-ओए, उसी को बजा-बजा कर बड़े भाइयों को खूब नचवाया गया. कुछ ने बिना भाँग चढ़े ही भाँग की नौटंकी करके मस्ती की.

कम भाँग खाने के कारण हमने तो भाँग के असर का पूरा आनन्द तो नहीं लिया, इस कारण हमें लगता रहा कि कभी भाँग खानी है और उसका असर देखना है. इसी ताक में लगे-लगे एक साल हमारे पड़ोस के त्रिपाठी चाचा ने भाँग को मेवे, खोआ आदि के साथ तैयार किया. हमने भी उस मिठाई का आनन्द उठाया और इस बार उसका असर देखने के लिए सोये नहीं, न कम खाई. अबकी बार मालूम पड़ा कि भाँग का मजा कैसा होता है. हमने भाँग खाने के बाद खूब मीठा भी खाया क्योंकि सुन रखा था कि मीठा खाने से भाँग खूब चढ़ती है. दोपहर में खाना खाकर लेटे और कुछ देर बाद ऐसा लगा कि आज हमने खाना तो खाया ही नहीं. पलंग से उठे और सोचा कि मुँह धोकर अम्मा से खाना माँगा जाये. मुँह धोते-धोते एकदम से याद आया कि कुछ देर पहले भी तो हम मुँह धो रहे थे. हमने अम्मा से पूछा तो पता चला कि हम खाना खा चुके हैं.

हम फिर वापस पलंग पर जाकर लेट गये. दिमाग इस बारे में भी सचेत था कि कहीं हमारी हरकत से कोई ये न समझे कि हम नशे में ऐसी बातें कर रहे हैं, इस कारण हम चुपचाप लेटे रहे. इसके बाद भी भाँग अपना असर तो दिखा ही रही थी. मन में कभी आता कि ऐसा हो रहा है तो कभी लगता कि नहीं ऐसा नहीं हो रहा है.
होत-होते शाम हो गई, भाँग ने भी अपना असर कम नहीं किया. शाम को हम भाई अपने दोस्तों के साथ छत पर बैडमिंटन खेलते थे, उस शाम को भी खेले. खेलते समय हमें याद ही नहीं रहता था कि कब शॉट मारा, कब प्वाइंट बने किन्तु खेलते भी रहे.

अन्त में एक बात समझी कि भाँग का नशा दिमाग की सक्रियता को कम करता है किन्तु यदि अपने पर नियंत्रण है तो वह आप पर हावी नहीं हो सकता. आज भी हम लोग बैठ कर उस दिन की भाँग खाने की और भी हरकतों की चर्चा कर हँस लेते हैं.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

2 टिप्‍पणियां:

  1. भाँग के किस्से की तो पूरी पोटली है हमारे पास । आपने सारी यादें ताज़ा कर दी । कमाल की पोस्ट और बेमिसाल यादें

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  2. यादों की पोटली खुलती है तो ऐसे मजेदार किस्से निकलते हैं ! बहुत बढ़िया !

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