दिल्ली
एक बार फिर आम आदमी पार्टी की हो गई. विधानसभा निर्वाचन 2020 के आरम्भ होने के समय से ही इस चुनाव को आआपा के पक्ष में माना जा रहा था.
परिणाम भी कमोवेश उसी तरह का आया. चुनाव परिणाम घोषित होते ही विश्लेषकों द्वारा
आम आदमी पार्टी को कांग्रेस का विकल्प बताया जाने लगा. असल में वर्तमान चुनाव
परिणामों की समीक्षा, विश्लेषण गंभीरता से नहीं किया जा रहा है. इसे सीधे-सीधे आम
आदमी पार्टी की एकतरफा जीत बताकर और भाजपा की हानि बता कर प्रसारित किया जा रहा
है. ऐसा यदि एक आम समर्थक द्वारा किया जाये, एक भावुक मतदाता के द्वारा किया जाये
तो बात समझ आती है कि वह किसी भावना के वशीभूत अपना आक्रोश निकाल रहा है. इसके उलट
जब खुद को बौद्धिक कहने वाले लोगों के द्वारा आम आदमी पार्टी की वर्तमान जीत का
अथवा विगत विधानसभा की जीत का सतही आकलन किया जाये तो लगता है कि अभी निष्पक्षता
की बहुत आवश्यकता है. देश में लोकतंत्र की वकालत भले ही की जाये मगर अभी वैचारिक
स्तर पर ही लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका है.
पूरे
देश में भाजपा विरोधी माहौल बहुत लम्बे समय से बना हुआ था मगर वर्ष 2014 के बाद से सिर्फ द्विपक्षीय लहर देखने को मिल रही है. इसमें एक भाजपा के
पक्ष में और दूसरी भाजपा के विरोध में. यहाँ भाजपा-विरोधियों के पास अपने-अपने
विकल्प खुले हुए हैं. ऐसा न केवल मतदाताओं, समर्थकों के साथ हो रहा है वरन दलीय
स्वरूप में भी ऐसा देखने को मिल रहा है. दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी यही हुआ. यहाँ
मतदाताओं की, भाजपा, आम आदमी पार्टी की स्थिति का सही-सही आकलन करने के लिए एक अन्य
तीसरे दल कांग्रेस का भी आकलन करना होगा. बिना उसके दिल्ली विधानसभा चुनावों की
सही तस्वीर सामने नहीं आ सकेगी. इसके लिए वर्तमान विधानसभा चुनावों से इतर विगत दो
विधानसभा चुनावों का भी आकलन करना पड़ेगा.
ऐसा
इसलिए क्योंकि कांग्रेस का चुनावी परिणाम सम्बन्धी आकलन, विश्लेषण ही तय करेगा कि
आआपा कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरी है अथवा उसकी टीम बी बनकर. वर्तमान चुनाव
परिणामों से ध्यान हटाकर यदि वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों
पर दृष्टि डाली जाये जबकि आम आदमी पार्टी ने अन्ना आन्दोलन की लहर में पहली बार
चुनाव मैदान में कदम रखा था. पार्टी ने पहली बार में ही सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा.
70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा भाजपा, आआपा
और कांग्रेस के बीच ही सिमट गई. इस चुनाव में भाजपा 32 सीटों
के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जबकि आआपा 28 सीटों के
साथ दूसरे और सत्ताधारी कांग्रेस महज 08 सीटों के साथ तीसरे
नंबर पर आई. भाजपा विरोधी मानसिकता के कारण कांग्रेस ने आआपा को समर्थन देकर सरकार
बनवाई जबकि अन्ना आन्दोलन से जन्मी आआपा का सबसे बड़ा विरोधी दल कांग्रेस ही बना
था.
पहली
बार में ही अपनी उपस्थिति को इस रूप में देखकर अरविन्द केजरीवाल को भ्रम हो गया कि
वे भ्रष्टाचार के नाम पर कहीं भी, कैसी भी जीत, किसी के खिलाफ प्राप्त कर सकते
हैं. विधानसभा में भी उनकी जीत कांग्रेस की सशक्त नेता और दिल्ली की तत्कालीन
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ थी. इसी सोच के चलते महज 49 दिन की सरकार चलाने के बाद केजरीवाल लोकसभा चुनाव की तरफ मुड़ गए. अंततः
लोकसभ चुनावों के पश्चात् दिल्ली ने 2015 में दोबारा चुनावों
का मुँह देखा. यही वह स्थिति थी जबकि लोकसभा 2014 के बाद से
बनी मोदी लहर और मोदी-विरोधी लहर का देशव्यापी रूप देखने को मिला. दिल्ली विधानसभा
2015 चुनाव परिणाम सोचने वाले थे, शोध करने वाले थे मगर किसी
ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया. सोचने वाली बात है कि आआपा या फिर अरविन्द केजरीवाल
ने महज 49 दिन में ऐसे कौन से काम कर डाले थे कि महज 28
सीटें जीतने वाली आआपा ने इन चुनावों में 63 सीटें
हासिल कीं? यह भी सोचने वाली बात है कि जिस भाजपा की स्थिति कांग्रेस या शीला
दीक्षित के कार्यकाल में बुरी नहीं रही, उसने महज 49 दिन में
ऐसे कौन-कौन से गलत कदम उठा लिए कि उसे मात्र तीन सीट पर सिमटना पड़ा?
इन
सभी सवालों का जवाब चुनाव परिणामों में ही छिपा हुआ था, जिसे देखकर भी इसलिए
अनदेखा कर दिया गया क्योंकि भाजपा-विरोधी मानसिकता के आगे और कुछ देखना ही नहीं
था. 2013 के चुनाव परिणामों के मुकाबले आआपा को 2015 में सभी सत्तर सीटों पर अधिक मत प्राप्त हुए. यह महज संयोग नहीं कहा
जायेगा कि कांग्रेस ने 2013 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 2015
के चुनावों में दो सीटों, मंगोलपुरी और मतिया महल को छोड़ शेष 68
सीटों पर बहुत ही कम मत प्राप्त किये. यहाँ कांग्रेस के मतों का कम
होना उतना आश्चर्यचकित नहीं करता जितना इस बात के लिए करता है कि बहुत से सीटों पर
यह कमी दो से पाँच गुनी तक रही है. यदि इस आँकड़े के परिदृश्य में भाजपा की सीटें
देखें तो भाजपा ने महज 17 सीटों पर 2013 के मुकाबले 2015 में कम मत हासिल किये. इनमें कुछ
सीटों पर यह अंतर सौ मतों से भी कम का रहा. क्या इसे महज एक संयोग कहकर अनदेखा किया
जा सकता है?
इस
तरह के मतों को देखकर विश्लेषण करने वाला, सांख्यिकी सम्बन्धी आँकड़ों से खेलने
वाला कोई भी विद्यार्थी प्रथम दृष्टया ही बता सकता है कि ये पूरा खेल मत-स्थानांतरण
का है. मतदाताओं का एक दल से दूसरे दल की तरफ, एक प्रत्याशी से दूसरे प्रत्याशी की
तरफ ‘स्विंग’ कर जाना कोई नई घटना नहीं थी मगर समूची विधानसभा के मतदाताओं का
‘स्विंग’ कर जाना साधारण घटना नहीं है. कोई भी साधारण से साधारण विश्लेषक इसे खेल
कहने का दुस्साहस कर सकेगा क्योंकि ये मामला 2015 विधानसभा
चुनाव तक ही सीमित नहीं रहा. भाजपा या कहें कि मोदी विरोधियों ने अपने कदम से और
मतदाताओं के रुझान से इसका एहसास कर लिया कि अन्ना आन्दोलन के समय मिले समर्थन और
उसके बाद 2015 में मतों के ट्रांसफर से भाजपा विरोध में आआपा
को कांग्रेस का विकल्प अथवा उसकी टीम बी बनाया जा सकता है. इसी कारण से दिल्ली में
मोदी विरोध में, भाजपा विरोध में सभी दल किसी न किसी रूप में एकजुट बने रहे. इन दलों
ने खुलकर मोदी का विरोध किया, भाजपा का विरोध किया मगर आपस में एक-दूसरे का विरोध
करने से बचते रहे.
इस
खेल में किसी भी तरह की कमी नहीं आई बल्कि उसे और मजबूती प्रदान की जाने लगी.
इसमें केन्द्र सरकार के निर्णयों को आधार बनाकर अनावश्यक विरोध बनाये रखा गया.
समूची दिल्ली में केन्द्र सरकार के विरोध के बहाने मोदी को हराने की कोशिशें चलती
रहीं. आम आदमी पार्टी के कामों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाने लगा. चुनावों
में स्थिति कुछ और ही बनती, यदि परदे के पीछे की सांठ-गांठ जमीन पर न उतरती. शाहीन
बाग का विरोध इसी का परिणाम कहा जा सकता है. इन सबके बाद भी विधानसभा 2020 के चुनावों में आम आदमी पार्टी जीतने के बाद भी अपना पिछला कारनामा करने
में असफल रही. 2015 के चुनाव के मुकाबले इस बार वह मात्र 35
सीटों पर ही ज्यादा मत प्राप्त कर सकी. भाजपा को 2015 के मुकाबले 57 सीटों पर अधिक मत प्राप्त हुए. कांग्रेस ने कुल 06 सीटों पर अधिक मत प्राप्त
किये. इसे भी संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता कि 70 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को
मात्र 08 सीटों पर पाँच अंकों में मत प्राप्त हुए, उनमें भी महज
तीन सीटों में वह बीस हजार या उसके आसपास में सिमट गई. ये और बात है कि भाजपा इसके
बाद भी महज आठ सीटों पर ही विजय हासिल कर सकी.
आआपा
की बढ़ती सीटों के पीछे भाजपा की कार्यप्रणाली, उसके नेतृत्व की स्थितियां भी
प्रभावी होंगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु इसकी चर्चा किये बिना,
परिणामों के आपसी सह-सम्बन्ध को परखे बिना आआपा को कांग्रेस का विकल्प बता देना
अभी जल्दबाजी होगी. आआपा विशुद्ध रूप से कांग्रेस की टीम बी के रूप में देखी जा
सकती है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि जहाँ-जहाँ कांग्रेस चुनावों में पराजित हुई है वहाँ
उसके द्वारा ईवीएम पर ऊँगली उठाई गई, केन्द्र सरकार पर आरोप लगाये गए लेकिन दिल्ली
के दो विधानसभा चुनावों में शून्य सीटें लाने के बाद भी उसकी तरफ से ऐसा कुछ नहीं
किया गया. कांग्रेस का विरोध करके जमीन बनाने वाली आम आदमी पार्टी को पहली बार में
ही समर्थन देकर सरकार बनवाना, एक भी सीटें न मिलने के बाद भी ईवीएम पर हो-हल्ला न
मचाना, एकाएक कांग्रेस के मतों में जबरदस्त गिरावट आना और उसी अनुपात में आम आदमी
पार्टी के मतों का बढ़ना इसे कांग्रेस का विकल्प नहीं बल्कि अवसरवादी राजनीति सिद्ध
करता है.
फिर भी कॉंग्रेस कितनी खुश है आप के आने से! मुझे भी खुशी है कॉंग्रेस की खुशी में।
जवाब देंहटाएंकुमारेंद्र जी, आपने बहुत बढ़िया आर्टिकल लिखा है। इसके लिए आपको बधाई। दो-तीन पॉइंट की तरफ मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। सबसे पहला तो यह कि आम आदमी पार्टी को कांग्रेस की B पार्टी के रूप में अब नहीं समझा जाना चाहिए। 2013 और 15 की परिस्थितियों के मद्देनजर ऐसा समझा जाता रहा है, परंतु आम आदमी पार्टी अब उन परिस्थितियों से बाहर निकल चुकी है। दूसरा यह कि पिछले 5 वर्ष के कार्यकाल के दौरान केजरीवाल ने जो कार्य किया और मोदी जी ने जो कार्य किया, हालांकि यह तुलना बेमानी है, बावजूद इसके दिल्ली की जनता ने इसकी तुलना की और विशेषकर शाहीन बाग में चल रहे वर्तमान धरना को लेकर। अब केजरीवाल राजनीति के नौसिखिया नहीं रहे, मंजे हुए खिलाड़ी बन चुके हैं। सबसे बड़ी बात तो यही है कि केजरीवाल ने दिल्ली चुनाव में अपने हिसाब से चुनकर बिसात बिछाई। हालांकि भाजपा ने भी अपने तरफ से बिसात बिछाई, परंतु केजरीवाल ज्यादा चालाक निकले। वह जानते थे कि सांप्रदायिकता के बिसात पर वह चारों खाने चित हो जाएंगे और इसलिए उन्होंने सॉफ्ट हिंदुइज्म का सहारा लेते हुए विकासवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने का काम किया। हालांकि यह काम राहुल गांधी ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान किया था, परंतु उनकी जो छवि है वह किसी भी प्रकार से भारतीय जनता को आश्वस्त नहीं करती है। इसलिए कांग्रेस शुरू से ही अपने आप को रेस से बाहर मानकर चल रही थी, तथा जो कुछ भी वोट परंपरागत तौर पर उनके पास था उसको आम आदमी पार्टी के पक्ष में ट्रांसफर कराने में ही अपनी भलाई समझी। हालांकि यह दीगर बात है कि कांग्रेस के वोटर ने कांग्रेस के तरफ से ऐसा किया या आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन से खुश होकर ऐसा किया। वह चाहते तो भारतीय जनता पार्टी को भी वोट दे सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिए इस चुनाव में भाजपा अपने सहयोगियों के साथ मिलकर लगभग 40% वोट प्राप्त करती है, बावजूद इसके उसे सीट 8 मिलती है। परंतु आम आदमी पार्टी को लगभग 1 से 1:30 प्रतिशत ज्यादा वोट मिलता है फिर भी सीटें 62 मिलती है। first past the post system की यही सबसे बड़ी विडंबना होती है। यदि कांग्रेस थोड़ा भी बेहतर प्रदर्शन करती और यदि उसका मत प्रतिशत 12 से 14% के आस पास होता तो तय मानिए कि भाजपा को लगभग 50 से 55 सीटें मिल रही होती और बाकी सीटें आम आदमी पार्टी को। मेरा स्पष्ट मानना है कि ध्रुवीकरण के आधार पर मत विभाजन की भी अपनी एक सीमा होती है। उस सीमा से आगे यह उल्टी चाल चलने लगता है दिल्ली चुनाव में मुझे कुछ कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ इसलिए भविष्य के चुनावों के संदर्भ हेतु मेरा यह तीसरा अनुमान है कि सॉफ्ट कम्युनल एजेंडा जब तक भाजपा चलाते रहेगी तब तक तो उसे वोट और सीट दोनों बहुत अच्छा मिलेगा परंतु उग्र कम्युनल एजेंडा इसके परफॉर्मेंस में गिरावट करने का काम करेगा।
जवाब देंहटाएंडॉ संजय कुमार
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