01 सितंबर 2019

खुद से लड़ने की कोशिश - 1600वीं पोस्ट


अपने ब्लॉग के सहारे आप सभी से जुड़ने का प्रयास हमेशा से रहा है. ब्लॉग के दिन ऐसा लगता है जैसे किसी अन्य माध्यम ने छीन लिए. हमें याद है जब हम ब्लॉग जगत में एकदम से नए-नए आये थे तब किसी भी तरह की सहायता मांगने पर वरिष्ठ ब्लॉगर द्वारा तत्कालीन सहायता उपलब्ध कराई जाती थी. इधर शायद सुनकर बुरा लगे मगर ऐसे प्रबुद्ध वरिष्ठ ब्लॉगर भी किसी न किसी विचारधारा की चपेट में आ गए. उनके लिए नए-पुराने का मतलब ही तिरोहित हो गया. ऐसे लोग जिन्होंने हमारे घर आकर कई-कई दिन की सेवाएँ प्राप्त कीं वे महज एक विचार पर किनारा कर गए. 

बहरहाल, आज ये हमारे ब्लॉग की 1600वीं पोस्ट है जिसे ऐसे लोगों पर कतई खर्च नहीं करना है जिनको संबंधों का, रिश्तों का कोई भान नहीं. आज की पोस्ट हम विशुद्ध अपने पर केन्द्रित करना चाहते थे मगर कतिपय कारणों से ऐसा नहीं हो सका. इस सोलहवीं सौ पोस्ट का आरम्भ ही ऐसे बिंदु से हुआ जिसे हम चर्चा में नहीं लाना चाहते थे. असल में किसी भी व्यक्ति के जीवन में कोई न कोई घटना अपना पूर्ण प्रभाव छोड़ती है, इसी प्रभाव के चलते अच्छे-बुरे का ज्ञान उसे होता है. कुछ ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ. जीवन के महज तीस साल देखते-देखते ही पारिवारिक जिम्मेवारियों का बोझ हमारे कन्धों पर आ गया. इससे पहले कि हम इस बोझ को, इस जिम्मेवारी को पूरी तरह से उठा पाने में सक्षम होते हम खुद ही अपने परिवार पर बोझ बन गए. अचानक हुई एक दुर्घटना से सारे परिवार के सोचने का, कार्य करने का अर्थ ही बदल दिया. इस अर्थ का भान उस समय भी हुआ था, आज फिर हुआ. अपने बच्चा चाचा के लिए न तब शब्द थे, न आज शब्द हैं. यद्यपि आज उस दुर्घटना से संदर्भित कोई भी समय नहीं है मगर हमारी पुस्तक कुछ सच्ची कुछ झूठी के सन्दर्भ में चाचा जी द्वारा मिली संक्षिप्त प्रतिक्रिया ने उन्हीं दिनों की सैर करवा दी. ये पुस्तक तो महज एक सामान्य सा आवरण है जिसे हमने अपने आपको बचाने के लिए प्रस्तुत किया है. ऐसे लोगों के सामने अपने जीवन का बखान क्या करना जिन्हों जीवन को ज़िन्दगी बनाया है. ऐसे लोगों में हमारे बच्चा चाचा भी हैं.

असल में ज़िन्दगी वह नहीं जो आप जीते हैं या जीने की कोशिश करते हैं बल्कि ज़िन्दगी वह है जिसे जीते हुए आपके साथ आपके लोग भी साथ दिखें. आज के लिए महज इतना ही. इस पर विस्तार से आगे कभी और किसी दिन.

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