बच्चों
की गर्मियों की छुट्टियाँ हो गईं. छुट्टियाँ होने के बाद भी बच्चे तनावमुक्त नहीं
दिख रहे हैं. वे प्रफुल्लित नहीं दिख रहे हैं. उत्साह में, उल्लास में, मस्ती में,
शरारत में, शैतानियों में नहीं दिख रहे हैं. उनके चेहरों पर आज भी वैसा ही तनाव
दिख रहा है जैसा कि स्कूल खुले होने के समय दिखाई देता है. तब में और अब में बस
इतना अंतर है कि तब तनाव में दिखते बच्चे स्कूल की ड्रेस में, पीठ पर भारी-भरकम
बस्ता टाँगे दिखाई देते थे, अब इनके बिना तनाव में दिख रहे हैं. इसके पीछे स्कूल
से मिलने वाला वो ढेर सारा काम है जिसके बोझ में बचपन गुम हो जाता है, छुट्टियों
की मस्ती गुम हो जाती है. अब बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में कुछ नया सीखते कम ही
दिखाई देते हैं. अब बच्चों में गर्मियों की छुट्टियों में आपस में स्वस्थ
प्रतियोगिता होते भी बहुत कम दिखाई देती है. बच्चे अब मैदानों में खेलने की बजाय
या तो अपनी कॉपी-किताबों में खोये होते हैं या फिर मोबाइल में. अब उनके पास
गर्मियों की छुट्टियों का आनंद उठाने का, उसमें कुछ नया सीखने का न तो समय है और न
ही इसके लिए कोई प्रेरणा है.
ऐसे
समय में याद आता है अपना बचपन जबकि हमें सर्दियों के शुरू होते ही गर्मियों की
छुट्टी का इंतजार होने लगता. जैसे-जैसे महीने सरकते जाते वैसे-वैसे हम सबकी
योजनायें बनती-बढ़ती जाती. कब क्या करना है, कैसे करना है, क्यों करना है आदि-आदि
सवालों-जवाबों से खुद ही जूझते हुए गर्मियों की छुट्टियों का इंतजार किया जाता. कुछ
न कुछ नया बनाने की होड़ मोहल्ले के बच्चों में लगी रहती. कुछ भी नया बनाया जाता,
सीखा जाता वह एकदम सीक्रेट रखा जाता. ध्यान इसका रखा जाता कि सबसे पहले हम की
मानसिकता के साथ सभी को कुछ नया बताया-दिखाया जाये और फिर बाकी लोगों की मान-मनुहार
के बाद उसे सिखाया जाये. इस प्रतियोगिता के चक्कर में आये दिन कुछ न कुछ नया सीख
भी लिया जाता और कभी-कभी कुछ न कुछ गड़बड़ कर दी जाती. कभी बिजली के सामानों का
उपयोग करके फ्यूज उड़ा दिया जाता, कभी किसी नए सामान बनाने के चक्कर में किसी
पुराने सामान की बलि चढ़ा दी जाती. गर्मी का ताप जैसे-जैसे चढ़ता जाता वैसे-वैसे हम
लोगों की सक्रियता और भी तेज होती जाती. मोहल्ले भर का चक्कर, न लू-लपट का डर, न
बुखार आने का भय, न किसी के द्वारा परेशान किये जाने की आशंका, न किसी घर से
परायेपन का आभास. ऐसा लगता जैसे सभी मकान, सभी घर हमारे ही हैं, हम सभी एक ही
परिवार का हिस्सा हैं.
अब
कुछ नया सीखने-सिखाने जैसी स्थिति ही नहीं दिखती क्योंकि सबकुछ इंटरनेट पर उपलब्ध
माना जाने लगा है. अब बच्चों में कुछ नया सीखने की ललक से ज्यादा कुछ नया देखने की
बनती जा रही है. अब वे आपस में अपने अनुभव शेयर करने के स्थान पर नए-नए वीडियो के
लिंक शेयर करते हैं. कुछ नया बनाने की जगह पर वे ऊटपटांग हरकतों वाले वीडियो बनाते
नजर आते हैं. मिलजुल कर घरों, गलियों में मस्ती-शरारत करने के स्थान पर सड़कों पर तेज
रफ़्तार बाइक दौड़ाते नजर आते हैं. उनकी सक्रियता, उनकी रचनात्मकता को जैसे ग्रहण लग
गया है. इसमें यदि वर्तमान समय दोषी है तो स्कूल भी दोषी हैं, शिक्षक भी दोषी हैं,
अभिभावक भी दोषी हैं. जल्द से जल्द, अधिक से अधिक अंक लाने की अंधी दौड़ ने बच्चों
को उनकी नैसर्गिक प्रतिभा से वंचित कर दिया है. ऐसे में वे जैसे किसी हाथ की
कठपुतली बन गए हैं. उनके आचरण में, उनके व्यवहार में एक तरह की कृत्रिमता देखने को
मिल रही है. बातचीत में, हावभाव में वर्तमान में प्रचलित कार्टूनों की छाया
परिलक्षित हो रही है. इस बारे में समय को दोषी देकर खुद को बचाया नहीं जा सकता है.
शिक्षकों को, अभिभावकों को इस तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है. यह ध्यान देने की
जरूरत है कि बचपन एक बार ही आता है और इस दौर में मस्ती, शरारत, अपनत्व के बीच अपनाई
गई शिक्षा, सीखे गए काम सारे जीवन काम आते हैं.
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