25 मई 2019

बच्चों का ऊँची इमारत से कूदने को भी तुमने इवेंट बना दिया


सूरत की बिल्डिंग में लगी आग सिर्फ वहाँ की अव्यवस्था की निशानी नहीं है बल्कि वहाँ तमाशबीन बने नागरिकों के संवेदनहीन होने की तथा सरकारी तंत्र की नाकामी की भी निशानी है. आग लगने के बाद जिस तरह से उस इमारत की चौथी मंजिल से बच्चे कूदते दिखाई दे रहे थे, वह घबराहट पैदा करने वाला है. उन बच्चों को निश्चित ही यह मालूम होगा कि इतनी ऊँचाई से कूदने के बाद उनके बचने की उम्मीद बहुत कम होगी. इसके बाद भी उनका कूदना कहीं न कहीं यही आशा लिए होगा कि शायद बच जाएँ. संभव है कि आग लगने के दौरान मची भड़भड़ के दौरान उन बच्चों को पहले तो आग से अपनी जान बचाना समझ आया होगा, वे यह भूल ही गए होंगे कि ऊंची इमारत से कूदना भी सुरक्षित नहीं है. वे बच्चे तो अग्निकांड से, बढ़ते धुँए से परेशान रहे होंगे, अपनी जान बचाने की कोई न कोई राह तलाश रहे होंगे, किसी न किसी तरह बस बचना चाह रहे होंगे. उस समय उनके सोचने-समझने की क्षमता पर ग्रहण लगना स्वाभाविक सा है मगर उसी इमारत के नीचे इकट्ठी भीड़ तो संज्ञा-शून्य नहीं थी. उसके पास किसी तरह से बचने की, अपनी जान बचाने की कोशिश करने की कोई हड़बड़ी नहीं थी. उसके सामने उसकी जान का संकट भी नहीं था. इसके बाद भी तमाशबीन भीड़ बस एक संवेदनहीन भीड़ ही बनी रही. अपने परिचितों के उन लोगों को जो वहां नहीं थे, उनके लिए, सूरत से दूर बैठे उनके परिचितों के लिए, सोशल मीडिया के मित्रों के लिए वे वीडियो बनाने में लगे हुए थे.


एक पल को सोचिये, चौथी मंजिल से कूदते बच्चे, सड़क पर खड़ी भीड़, वीडियो बनाते लोग, चिल्लाते-सिर पकड़ते नागरिक, मुँह ताकती फायर ब्रिगेड की फ़ौज. यह सब दिल दहलाने वाला है. सोचकर ही दिल डूबने सा लगता है. मन उदास नहीं होता वरन उस भीड़ पर गुस्सा करता है. वीडियो बनाती भीड़ ने, आग बुझाने आये दमकलकर्मियों ने उस समय अपना दिमाग क्यों नहीं दौड़ाया? क्यों उन्होंने कूदते बच्चों को बचाने के प्रयास नहीं किये? सोचिये, क्या उस बिल्डिंग के आसपास की दुकानों में चादरें न रही होंगी, परदे न रहे होंगेक्या भीड़ बनकर ताकते, रिकॉर्डिंग करते लोग मिलकर एक सघन घेरा नहीं बना सकते थेक्या फायर ब्रिगेड के पास कूदते लोगों को बचाने के लिए कोई जाल वगैरह नहीं होता? या फिर इन सब सवालों से बड़ा सवाल कि क्या हम सब संवेदनहीन हो चुके हैं? हम वाकई संवेदनहीन हो चुके हैं. जितनी भीड़ वहाँ दिख रही है उसके द्वारा उसी तरह से मानव इमारत बनाया जा सकता था जैसा कि दही-हांडी फोड़ने के समय बनाया जाता है. ऐसा यदि उस भीड़ के द्वारा नहीं किया जा सकता था तो कम से कम भीड़ मिलकर सघन घेरा बना सकती थी.  चादरों, पर्दों के द्वारा, नागरिकों के बनाये सघन घेरे से गिरते बच्चों के फ़ोर्स को कम तो किया ही जा सकता था. ऐसा कुछ नहीं किया जा सका. न तो भीड़ जिम्मेवार दिखी और न ही अग्निशमन वाले. क्या उस विभाग के पास इतने इंतजाम नहीं कि ऊंची इमारत तक पहुँचा जा सके? क्या उसके पास किसी ऊंची इमारत से कूदते-गिरते लोगों को बचाने के लिए एक जाल नहीं. यह उस विभाग की, सरकारी तंत्र की अक्षमता को ही दर्शाता है. 


अब सारा ठीकरा कोचिंग सेंटर पर, उसकी अनुमति देने वाले पर, उस इमारत के मालिक पर फोड़ा जायेगा. उनको दोष देते हुए सारे मामले को दबाने की कोशिश की जाएगी. तमाम सारे अनर्गल कदम उठाये जाने के बाद भी कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जायेगा. किसी को जिम्मेवार न बनाते हुए बस उस हादसे को भुला दिया जायेगा. समझ नहीं आता कि इस तरह की बड़ी-बड़ी इमारतों में बाहर निकलने के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किये जाते? क्यों इस तरह की व्यापारिक, व्यावसायिक जगहों पर सुरक्षा के इंतजाम सशक्त नहीं किये जाते? क्यों प्रशासन द्वारा नागरिकों को ऐसी किसी विभीषिका से निपटने के तरीके नहीं बताये जाते? बाकी कोचिंग सेंटर्स या फिर ऐसी ऊँची-ऊँची इमारतों में संचालित अनेक संस्थाओं, रेस्टोरेंट, दुकानों आदि की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में कहना ही क्या. हम सभी लोग, सबकुछ जानने के बाद भी अनजान बने रहते हैं. आँखों पर पट्टी बांधे रहते हैं. होंठों को सिले रहते हैं. अब बोलेंगे भी, लिखेंगे भी, आँसू भी बहाए जायेंगे, मोमबत्तियां भी जलाई जाएँगी, जुलूस निकाले जायेंगे मगर ध्यान रखियेगा, जो बच्चे चले गए, वे वापस न आयेंगे. और हाँ, हम इसके बाद भी आगे के लिए सचेत न हो पाएंगे.

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