27 मार्च 2019

हम सभी को इस संसार में, समाज में नाटक करते रहने की शुभकामनायें


बाबू मोशाय, हम-सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में है. कब, कौन, कैसे उठेगा, यह कोई नहीं जानता. ये भले ही एक फिल्म का डायलॉग हो मगर वास्तविक जीवन में भी ये पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं. यहाँ उक्त दोनों पंक्तियों के बजाय चर्चा सिर्फ पहले हिस्से की, हम-सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं. यहाँ कठपुतली से इतर हम सभी यदि अपनी भूमिकाओं की बात करें तो साफ़-साफ़ समझ आएगा कि हम सभी जिंदगी के मंच पर सिर्फ नाटक ही तो करने में लगे हैं. जी हाँ, यहाँ सवाल किसी ऊपर वाले के हाथ में अपनी डोर होने का नहीं वरन खुद हमारा अपना नाटक करने का है. एक पल को अजीब भले ही लगे मगर रुक कर देखिये, क्या हम सभी किसी न किसी तरह से नाटक नहीं कर रहे हैं? एक पल को अपनी जीवन-शैली पर विचार करिए क्या हम सब रंगमंच पात्रों की तरह से व्यवहार नहीं करते हैं? अपने दिन-भर के क्रियाकलापों पर निगाह डालिए क्या हम सब दिन-भर विभिन्न भूमिकाओं का निर्वहन नहीं करते हैं? सुबह आँख खुलने से लेकर रात सोने तक हमारे काम, हमारी दिनचर्या, हमारा व्यवहार आदि सबकुछ एक पात्र की तरह से निर्धारित रहता है, समय-परिस्थिति-देशकाल के अनुसार उसमें परिवर्तन भी होता रहता है. 


देखिये न, सुबह उठने से लेकर अपने-अपने कार्यक्षेत्र के लिए निकलने तक हम घर में एकदम स्वतंत्र, निर्द्वन्द्व होते हैं. सबकुछ हमारा अपना सा होता है. काम करने का अंदाज, नाश्ता करने का अंदाज, तैयार होने की स्थिति आदि में हम सभी सहजता का अनुभव करते हैं. यही सहजता अपने-अपने कार्यक्षेत्र में आते है दिमागी उलझन में बदल जाती है. घर की सहजता अपने ऑफिस में पहुँचते ही बोझ की तरह महसूस होने लगती है. घर का वह बेलौस अंदाज अपने बॉस के सामने आते ही हवा हो जाता है. नितांत अनौपचारिक रूप से घर से निकलने के बाद अनाम तरह की औपचारिकता हमारे चारों तरफ एक आवरण बना लेती है. हमारे बात करने का तरीका, हमारे उठने-बैठने का अंदाज, हमारे काम करने का तरीका भी बदल जाता है. दिन भर काम का बोझ, दिमागी भार लेकर घर पहुँचा हुआ व्यक्ति अब उस आज़ादी में, उस सहजता में समय नहीं गुजार रहा होता है जैसा कि वह सुबह गुजार रहा था. दिल-दिमाग पर काम के बोझ के साथ-साथ दिन भर की अनेक समस्याएं छाई होती हैं. अब उसकी भूमिका में बदलाव दिख रहा होता है.


इसके अलावा इसे ऐसे भी महसूस करिए कि कैसे एक ही व्यक्ति, एक ही भूमिका में सामने वाले के अनुसार खुद को बदलता रहता है. उसके बात करने, जवाब देने, काम करने का अंदाज सामने वाले के व्यवहार पर निर्भर होने लगता है. घर के सदस्यों के साथ, मित्रों के साथ, सहयोगियों के साथ, रिक्शे वाले के साथ, सब्जी वाले के साथ, दुकानदार के साथ, अधिकारियों के साथ, अपने बॉस के साथ क्या सबके साथ बातचीत का, व्यवहार का तरीका एक सा ही रहता है? नहीं न, फिर, इसे नाटक नहीं कहा जायेगा? असल में जब भी रंगमंच की बात की जाती है, नाटक की बात की जाती है तो एक बड़ा सा थियेटर, उसमें बड़ा सा मंच, कुछ निश्चित पात्रों द्वारा अलग-अलग वेशभूषा में अभिनय करने का बंधा-बंधाया आधार सामने आकर खड़ा हो जाता है. असल में अभिनय उतना ही नहीं है, रंगमंच उतना ही नहीं है बल्कि हमारे जीवन का एक-एक पल रंगमंच है. हम सबकी एक-एक गतिविधि अभिनय है. हमारा एक-एक आचरण भूमिका है.

विश्व रंगमंच दिवस पर हम सभी को इस संसार में, समाज में नाटक करते रहने की हम सभी की तरफ से बधाई, शुभकामनायें.

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