पढ़ा-लिखा
होना, शिक्षित होना, साक्षर होना किसी भी व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण होता है. कोई
इसके द्वारा खुद को इन्सान बना लेता है और कोई इसके बाद भी अमानवीय, असंवेदनशील
हरकतें करता ही रहता है. कई बार देखने में आता है कि कुछ अवसरों पर निरक्षर, अनपढ़
व्यक्ति बहुत ज्यादा संवेदनशीलता दिखा जाता है उसके उलट साक्षर, शिक्षित व्यक्ति
अशोभनीय हरकतें करता ही रहता है. पढ़ा लिखा होना बहुत से लोगों के लिए बेकार हो
जाने वाला साबित होता है. इसी पढ़े लिखे होने में कुछ लोगों को घमंडी बना रखा है,
कुछ लोगों के दिमाग को ख़राब कर रखा है. अनावश्यक रूप से अपने सहयोगियों के साथ,
अपने अधीनस्थ लोगों के साथ, अपने कर्मचारियों के साथ ऐसे व्यवहार किया जाता है
जैसे वही एकमात्र शिक्षित अथवा साक्षर हैं. ऐसा लगता है जैसे केवल इन्हीं को किसी
ईश्वरीय शक्ति ने विशेष रूप से निर्मित करके धरती पर भेजा है. ऐसे लोगों को समझना चाहिए
कि सभी लोग एकसमान स्थिति में हैं, कतिपय कारणवश किसी-किसी की प्रस्थिति में अंतर
हो जाता है मगर इसका अर्थ उसके साथ दुर्व्यवहार करना नहीं है.
इसी तरह
कुछ पढ़े-लिखे लोग, साक्षर लोग अपने अधिकारों का, अपने कर्तव्यों का पालन ही नहीं
कर पाते हैं. कई बार देखने में आया है कि ऐसे पढ़े-लिखे लोग भी जरा-जरा से काम के
लिए, छोटी-छोटी सी बात के लिए दूसरे पर निर्भर रहते हैं. उनकी इस निर्भरता का अगला
व्यक्ति फायदा उठाता रहता है. ऐसे लोग पढ़े-लिखे होए के बाद भी समाज के लिए निरर्थक
सिद्ध होते हैं. यहाँ समझना चाहिए कि समाज को डिग्रीधारी लोग नहीं चाहिए होते हैं
वरन ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है जो समाज को दिशा देने का काम कर सके, अपने
अधिकारों के लिए लड़ सकें. यदि ऐसा किसी व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा पा रहा है
इसका अर्थ है कि उसने अपनी फाइल में बस कागज़ बढ़ाने का काम किया है.
असल में
हमारे परिवारों में ही इस तरह की सीख नहीं दी जाती है कि हमें पढ़-लिख कर अहंकारी
नहीं बनना है. पढ़ने-लिखने के बाद हमें लोगों की सहायता करनी है. ये भी नहीं सिखाया
जाता है कि शिक्षित होने के बाद अपने अधिकारों का प्रयोग करना आना चाहिए.
जिम्मेवार लोगों से सवाल करना आना चाहिए. परिवारों में डिग्री को बहुत बड़ी जायदाद
बताया जाता है. एक छोटी सी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बाद उसका बखान ही बखान
किया जाता है. ऐसा महसूस करवाया जाता है जैसे कि मात्र उसी व्यक्ति के द्वारा ऐसा किया
जा सका है, शेष लोगों द्वारा बस निरर्थक प्रयास किये जा रहे हैं. इसी तरह शिक्षित
होने की अवस्था में परिवार में सिखाया जाता है कि अगले को बस अपने काम से काम रखना
है. समाज में क्या हो रहा है, समाज-विकास में उसका क्या योगदान हो सकता है, इस
बारे में कभी सिखाया-बताया ही नहीं जाता है. ऐसे में व्यक्ति लाभ शिक्षित हो जाये,
कितनी ही बड़ी डिग्री क्यों न हासिल कर ले मगर वह सामाजिक रूप से किसी तरह से
सहयोगी नहीं हो सकता है. ऐसे लोगों का योगदान सिर्फ और सिर्फ अपने लिए ही होता है,
समाज के लिए, देश के लिए कतई नहीं. इसी समाज द्वारा हमें शिक्षित बनाया गया है, कम
से कम हम सभी को उसका ही ऋण चुकता करने के बारे में विचार करना चाहिए.
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