इधर
दो-तीन घटनाएँ क्रमबद्ध रूप से एक के बाद एक करके सामने आती रहीं और विवाद का विषय
बनती रहीं. ये सभी घटनाएँ मुस्लिम समुदाय से जुड़ी होने के कारण भी एकदम से वायरल
हो गईं. इन घटनाओं में सर्फ़ एक्सेल का विज्ञापन, निर्वाचन आयोग द्वारा घोषित
चुनावी तारीखों का रमजान माह में पड़ना. उड़ती-उड़ती नज़रों से देखा जाये तो संभव है
बहुत से लोगों को इसमें कोई विवाद दिखाई भी न दे. विज्ञापन वाले वीडियो में ऐसे
लोगों को संभव है कि एक तरह का सौहार्द्र दिखाई दे. एक तरह का शांति-अमन का सन्देश
दिया जाना दिखाई दे. शांति का सन्देश दिखना भी चाहिए मगर उसके लिए पूर्वाग्रह-रहित
दृष्टिकोण चाहिए होगा. जिस तरह से होली के रंगों के बीच मजहबी रंग घोलने की कोशिश
की गई उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे नमाज को जाते बच्चे पर रंग डाल दिया जाना किसी
तरह की साम्प्रदायिकता हो जाती. क्या वाकई ऐसा है? क्या इस देश में मुसलमान होली
नहीं खेलते हैं? क्या यदि नमाज पढ़ने को जाते किसी मुसलमान पर रंग लग जाए तो इसमें
भी हिंसा होने जैसी स्थिति बन जाएगी? ऐसे बहुत से सवाल उमड़ने-घुमड़ने के बाद बचपन
में ले जाते हैं, जहाँ याद है कि हमारे मोहल्ले में तमाम हिन्दू परिवारों के बीच
एक मुसलमान परिवार भी रहता था. उस परिवार के सदस्यों को किसी भी होली में बचते
नहीं देखा. स्त्री हों या पुरुष, वृद्ध हों या बच्चे सभी मिलजुल कर होली खेलते
दिखते थे. बाद में युवावस्था में परिचितों संग, मित्रों संग होली पर नगर भ्रमण
जैसी स्थिति बनती, होली के हुरियारों की टोली गली-गली घूमती तो भी किसी मुस्लिम
समुदाय के व्यक्ति को रंगों से परहेज करते नहीं देखा. हाँ, ये बात अवश्य थी कि
जिसने इच्छा ज़ाहिर नहीं की, उसे रंग नहीं लगाया जाता था. ये एक तरह का अपनापन था,
सौहार्द्र था जो कम से कम उस विज्ञापन वीडियो में नहीं दिखाई दिया.
दूसरा
विवाद सामने आया रमजान माह में मतदान तिथियों के पड़ने का. निहायत बेवकूफी भरा
विचार सामने आया कि रमजान माह होने के कारण निर्वाचन आयोग को मतदान की तिथियाँ
नहीं रखनी चाहिए थी. क्या वाकई रमजान माह में अपने अल्लाह की इबादत के अलावा और कोई
काम नहीं किया जाता क्या मुसलमानों द्वारा? क्या मतदान कार्य किसी तरह का अवैध
कृत्य है, हिंसात्मक गतिविधि है या फिर गैर-इस्लामिक है जो रमजान माह में किया
जाना पाप का भागी बनाएगा? ये महज एक चुनावी फितूर है जिसे राजनैतिक दलों द्वारा
चुनावों के समय मुस्लिम समुदाय के वोटों का तुष्टिकरण करने के लिए छोड़ा जाता है.
ये अवश्य माना जा सकता है कि मुसलमानों के लिए रमजान माह का विशेष महत्त्व है मगर
ऐसा भी नहीं कि कुछ देर के मतदान का समय निकाल लेने पर उनकी किसी भी तरह की मजहबी
गतिविधि पर अंकुश लग गया हो या फिर निर्वाचन आयोग द्वारा ही कोई अंकुश लगाया गया
हो. जिस किसी ने भी इस तरह की राय व्यक्त की है वह मुस्लिम समुदाय का हितैषी नहीं
वरन उसे वोट-बैंक समझने वाला व्यक्ति है.
इन दोनों
घटनाओं के सन्दर्भ में प्रतिक्रियाएं भी समाज में देखने को मिलीं. इनके बीच सबसे
आश्चर्यजनक यह रहा कि खुद मुस्लिम समुदाय की तरफ से इन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं
आई. न तो किसी ने विज्ञापन वाले वीडियो का विरोध इस रूप में किया कि मुस्लिम भी
होली खेलते हैं और न ही निर्वाचन आयोग के समर्थन में कोई मुसलमान दिखाई दिया. इससे
क्या माना जाये कि देश का मुसलमान खुद को इस देश की स्थिति से, परम्पराओं से,
संस्कृति से, त्योहारों से, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से कहीं अलग रखने की कोशिश
करता है? उसका होली खेलना, दीपावली पर पटाखे चलाना, मतदान करना आदि किसी मजबूरीवश
किया जाता है? यही वे स्थितियाँ होती हैं जबकि किसी भी धर्म, मजहब के कट्टर लोग
इनका लाभ अपने लिए उठाने की कोशिश करते हैं. उनका सन्दर्भ किसी भी व्यक्ति या वर्ग
से नहीं होता है बल्कि वे ऐसे किसी भी कदम में अपना लाभ देखते-उठाते हैं. ये
सामान्य सी बात है कि ऐसी किसी भी विवाद की स्थिति में, जो मुसलमानों से जुड़ा होता
है, मुस्लिम समुदाय इसके विरोध में एकजुट होकर खड़ा नहीं होता है. उसकी तरफ से ऐसे
विवादों पर किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं की जाती है. इससे भी सामान्य सा माहौल
तनावग्रस्त बनते देर नहीं लगती है. देश के, समाज के हालात सामान्य रहें, हिन्दुओं-मुसलमानों
के बीच माहौल सौहार्द्र का बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि मुसलमान भी एक कदम आगे
बढ़ाएं.
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