कई बात लगता है कि अपनी तमाम सारी भूमिकाओं में से किसी के साथ भी न्याय न कर सके. हर भूमिका में बेहतर करने की कोशिश और उसके बाद भी असफलता. समझने की कोशिश में ऊहापोह की स्थिति बनती जाती है. न्यायसंगत बनाने का प्रयास होता है और उसके बाद भी कोई न कोई स्थिति उसमें अवरोधक जैसी आ जाती है. आख़िर भूमिकाओं की विविधता को समेटना क्यों न हो सका? या फिर भूमिका की एकरूपता का निर्माण ही न कर सके. ये सवाल ख़ुद से हैं, हमारी ही भूमिकाओं के हैं. इनके जवाब खोजे जा रहे हैं और शायद खोजे ही जाते रहेंगे.
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