समाज
अनादिकाल से शांति, अहिंसा, सौहार्द्र, स्नेह आदि-आदि सिखाने वाला रहा है और उसी
के सापेक्ष समाज में अशांति, हिंसा, वैमनष्यता, बैर आदि का भी समावेश बना रहा है.
यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि आदिमानव से महामानव बनने की होड़ में लगे इंसान को
लगातार प्रेम, दया, करुणा आदि का पाठ पढ़ाया जाता रहा है. उसे समझाया जाता रहा है
कि हिंसा गलत है, वह चाहे जीव पर हो, निर्जीव पर हो, पेड़-पौधों पर हो. इंसान को
कदम-कदम पर सीख दी गई कि उसे आपस में सद्भाव से रहना चाहिए. आपसी वैमनष्यता से उसे
दूर रहना चाहिए. उसे कभी नहीं सिखाया गया कि कैसे हिंसा करनी है. उसे किसी ने नहीं
सिखाया कि कैसे दूसरे से बैर भावना रखनी है. उसे किसी भी तरीके से नहीं बताया गया
कि सामने वाले की हत्या कैसे करनी है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जो पाठ उसे
सदियों से पढ़ाया जाता रहा, शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा, परिवार द्वारा पढ़ाया
जाता रहा, समाज द्वारा पढ़ाया जाता रहा इंसान उसी पाठ को कायदे से नहीं सीख पाया.
इसके सापेक्ष जिस पाठ को किसी ने नहीं सिखाया, जिसे सिखाने के सम्बन्ध में कोई
संस्थान नहीं है वे कार्य उसने न केवल भली-भांति सीख रखे हैं वरन वह उन्हें
तीव्रता के साथ करने भी लगा है.
समाज
की वर्तमान स्थिति यह है कि यहाँ प्रेम, करुणा, शांति, अहिंसा से अधिक बैर,
वैमनष्यता, हिंसा आदि दिखाई दे रही है. क्या कभी इस पर विचार किया गया कि आखिर ऐसा
क्या है इंसानी स्वभाव के मूल में कि उसे सदियों से प्रेम, सौहार्द्र का पाठ पढ़ाना
पड़ रहा है मगर वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की तरफ ही बढ़ता जा रहा है? आये दिन खबरें
मिलती हैं मासूम बच्चियों के साथ दुराचार की, उनकी हत्या की. आये दिन देखने में आ
रहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों पर हमले किये जा रहे हैं, उनकी जान ले ली जा रही
है. लगभग नित्यप्रति की खबर बनी हुई है किसी की हत्या, कहीं लूट, कहीं अपहरण, कहीं
मारपीट. इसे महज दो पक्षों के बीच की स्थिति कहकर विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए.
अभी
हाल की बुलंदशहर की घटना हो या फिर देश के कई राज्यों में प्रशासनिक अधिकारियों पर
हमले, दिल्ली की सामूहिक बलात्कार वाली दर्दनाक वारदात हो या फिर दिल्ली के डॉ० नारंग
की हत्या, अख़लाक़ की हत्या हो या फिर सामाजिक कार्यकर्ताओं पर
हमले सभी को महज आक्रोश, जातीय हिंसा, धार्मिक उन्माद, स्त्री-पुरुष कटुता मानकर
भुलाया नहीं जा सकता. गंभीरता से विचार किया जाये तो इन सबके पीछे बहुत बड़ा
मनोविज्ञान कार्य कर रहा है. दरअसल हिंसा, अत्याचार, क्रूरता इंसानी स्वभाव का मूल
है. इसे किसी समाजविज्ञानी, मनोविज्ञानी की दृष्टि से समझने की आवश्यकता तो है ही
साथ ही सामान्य इंसान के रूप में भी इसे देखा-समझा जाना चाहिए. यदि पारिवारिक
माहौल में देखा जाये तो छोटे-छोटे बच्चों को अकारण ही जमीन पर रेंगने वाले
कीड़े-मकोड़ों को मारते देखा जा सकता है. मोहल्ले की गलियों में जरा-जरा से बच्चों
को गलियों में टहलते जानवरों के पीछे डंडा लेकर उन्हें भगाना, मारना सहज रूप में
दिखाई देता है. इंसानी जीवनक्रम में मारपीट, लड़ाई, गाली-गलौज सहज रूप में उम्र
बढ़ने के साथ-साथ दिखाई देने लगती है. इस व्यवहार में कमी न होकर वृद्धि ही होती
रहती है.
अब
जबकि सामाजिक तानाबाना इस तरह का बना हुआ है जहाँ कि रहन-सहन, जीवनशैली,
क्रियाकलाप, कार्य प्रवृत्ति आदि सबकुछ आर्थिक स्तर के आधार पर निर्धारित होने लगी
है; जबकि भौतिकतावादी जीवनचर्या व्यक्तियों के लिए स्टेटस सिम्बल के रूप में काम
करने लगा हो; धार्मिक आधार को सामाजिक आधार से ऊपर खड़ा कर दिया गया हो; जबकि
व्यक्तियों को, परिवारों को, संस्थानों को राजनैतिक दृष्टि से परिभाषित करने के
प्रयास किये जाने लगे हों तब ऐसे में कहीं न कहीं आपसी मतभेद, वैमनष्यता बनना
स्वाभाविक है. इस मतभेद, वैमनष्यता को उसी स्थिति तक दबाये रखना संभव होता है जब
तक कि उसे कोई उत्प्रेरक शक्ति न मिल रही हो. लेकिन जैसा कि इंसानी स्वभाव का मूल
है, वह कबीलाई जंगली संस्कृति से निकल कर इंसान तो बना मगर वृक्षों, वनस्पतियों से
लदे-फदे जंगलों की बजाय कंक्रीट के जंगल में निवास करने लगा.
इस
जंगल में जहाँ सबकुछ स्वार्थ पर आधारित होने लगा है; जहाँ व्यक्तियों की प्रतिष्ठा
का आधार उसका पद, उसका आर्थिक स्तर होने लगा हो वहां आपस में खाई बनना स्वाभाविक
है. इसी खाई में रह रहे, पल-पल घुट रहे, जीवनशैली के कमतर स्तर को सहते हुए,
आर्थिक स्तर के निम्नतम बिंदु पर खड़े हुए लोगों में आक्रोश पनपना स्वाभाविक है.
समाज में एक आम धारणा बनी हुई है कि समाजोपयोगी कार्यों को करने का एकमात्र
उत्तरदायित्व सरकार का है. यह सही है कि राज्य, राष्ट्र अवधारणा में किसी भी सरकार
की जिम्मेवारी उसके नागरिकों के हितों का संरक्षण, संवर्द्धन करने की होती है.
इसके बाद भी आम नागरिकों का भी दायित्व है कि वे भी अपने विकास और उन्नति के लिए
लगातार सक्रिय बने रहें. प्रत्येक कदम के लिए सरकारी सुविधाओं का मुँह ताकते रहना
भी जनाक्रोश को बढ़ाता है.
यही
सारी स्थितियाँ किसी भी जनाक्रोश को हिंसात्मक गतिविधि में बदलने के लिए उत्प्रेरक
का कार्य करती हैं. एक जरा सी हवा मिलते ही भीड़ को धार्मिकता नजर आने लगती है.
हिंसा के लिए उतारू भीड़ अपने आक्रोश को दूर करने के लिए कभी विजातीय, विधर्मी को
अपना निशाना बनाती है तो कभी प्रशासनिक अधिकारियों के रूप में वह सरकार को निशाना
बनाती है. इस जनाक्रोश में हिंसक मन-मष्तिष्क भूल जाता है कि जिसके विरूद्ध वे सब
हिंसक होने जा रहे हैं वह भी इसी समाज का हिस्सा है. वह भी उन्हीं की तरह किसी
परिवार का अंग है. हिंसक भीड़ वर्षों से रटती आ रही प्रेम, स्नेह, अहिंसा, शांति,
सौहार्द्र का पाठ भूल जाती है. उसके दिल-दिमाग में उसका मूल स्वभाव जानवर बनकर जाग
उठता है.
सामाजिक
रूप से कितने भी प्रयास किये जाएँ किन्तु इंसानों का मूल स्वभाव बदले बिना शांति
सम्भावना की स्थिति अब संभव नहीं लगती है. वर्तमान समाज इतने खाँचों में विभक्त हो
चुका है कि उसे मानवीय समाज कहने के बजाय कबीलाई समाज कहना ज्यादा उचित होगा.
प्रत्येक वर्ग के अपने सिद्धांत हैं, अपने आदर्श हैं, अपने विचार हैं, अपनी
विचारधारा है. सबकी विचारधारा, सबके आदर्श दूसरे की विचारधारा, आदर्श से श्रेष्ठ
हैं. ऐसे में श्रेष्ठता, हीनता का बोध भी इंसानी स्वभाव पर हावी हो रहा है. समझने
वाली बात है जब आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को श्रेष्ठ समझने और दूसरे
को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में विकसित हो रही हो तब हिंसात्मक
गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है.
सरकार, प्रशासन, समाज, व्यक्ति सबके सब असहाय बने खुद पर हमला होते देख रहे हैं.
विडम्बना ये है कि यही सब अपने हमलावर भी बने हुए हैं.
उक्त आलेख दैनिक जागरण, दिनांक 08-12-2018 के राष्ट्रीय संस्करण के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है.
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