08 दिसंबर 2018

कल के वृद्ध आज के युवा


समय कितनी तेजी से बदलता है यह व्यक्तियों की आदतों, उसके रहन-सहन से समझ आता है. समय की यही चाल समाज की दिशा और चाल का निर्धारण करती है. किसी के लिए समय बहुत धीमी गति से चल रहा होता है तो किसी के लिए समय भागता सा समझ आता है. समय की गति का आकलन किसी एक व्यक्ति के अनुसार न करके समग्र रूप में करना चाहिए. समाज समग्रता में ही बसता है और व्यक्तिगत रूप में समाज का आकलन उस रूप में नहीं हो पाता है जैसा कि होना चाहिए. व्यक्तिगत नजरिया समग्र नजरिये से बहुत अलग होता है और इसी के चलते समय का प्रभाव सापेक्षतः स्पष्ट नहीं हो पाता है. इस सम्बन्ध में वर्षों पहले का एक विज्ञापन याद आता है, आपको भी याद आएगा. उस विज्ञापन में जितेन्द्र आकर तीस साल की उम्र के बारे में कुछ कहते-बताते हुए एक कैप्सूल खाने की सलाह देते थे. सोचिये उस समय को और आज को.


उस समय तीस साल की उम्र के बाद शक्तिवर्द्धक कैप्सूल लेने की आवश्यकता महसूस की जाती थी जबकि आज तीस साल की उम्र में एक व्यक्ति शादी करके पत्नी को खुश करने वाले कैप्सूल की तलाश करता है. उस विज्ञापन को याद करते हुए बस एक ही बात याद आती है कि कैसे उस दौर में एक व्यक्ति तीस साल की उम्र में ही खुद को वृद्ध समझने लगता होगा? कई बार उस विज्ञापन को याद करते हुए याद करते हैं अपने परिवार और अपने आसपास के परिवारों का हाल, जहाँ बीस-बाईस साल में परिवारों में दो-दो, चार-चार बच्चे पैदा हो जाया करते थे. आज हाल ये है कि तीस-पैंतीस की उम्र में विवाह हो रहे हैं. स्पष्ट है कि जब किसी व्यक्ति का परिवार बीस-बाईस साल में बस जायेगा, वे दो-चार बच्चों के माता-पिता बन जायेंगे तो उनमें अपने आप ही तीस साल की उम्र में बुढ़ापे का भाव आ जायेगा. किसी समय पढ़ा था ओशो के द्वारा कहा हुआ कि हमारे देश में जवानी आती ही नहीं. जिस समय इसे पढ़ा था, उस समय लगा था कि कुछ अतिशय कहा है उन्होंने मगर उनके तर्कों और उदाहरणों के सापेक्ष इसे मानना पड़ा था. आखिर एक व्यक्ति का जन्म होता है और पढ़ने-लिखने से फुर्सत पाने से उसके गले जिम्मेवारी डाल दी जाती है, विवाह की, एक लड़की की. अभी वह उस जिम्मेवारी को समझ ही नहीं पाता है कि उस पर रोज एक दबाव काम करने लगता है, अगली संतति को धरती पर लाने का. उफान मारती युवावस्था, भरपूर यौवन अपना रंग दिखाता ही है, उसके साथ उत्प्रेरक का काम करता है पारिवारिक दबाव. किसी को स्वर्ग की सीढ़ी की चाह होती है, किसी को मोक्ष प्राप्त करने की लालसा होती है. कोई बिना नाती देखे धरती छोड़ने को तैयार नहीं होता है. किसी को वंशावली बढ़ाने वाला उत्तराधिकारी चाहिए होता है. ऐसे में सबकी मनोकामना पूरी करते-करते, अपनी देह की माँग पूरी करते-करते अगला व्यक्ति कब दो-चार बच्चों के अभिभावक में बदल जाता है उसे पता ही नहीं चलता है.


इस स्थिति को उस समय बहुत नजदीक से देखा और समझा भी है. ऐसे में तब तीस साल की उम्र वृद्धावस्था वाली उम्र मानी जा सकती है. अब जबकि कैरियर के चक्कर में युवा शादी करने से भाग रहे हैं तब तीस साल की उम्र भरी युवावस्था समझा जाने लगा है. कैरियर के चलते, आधुनिकता के चलते आज के युवा शादी जैसी संस्था के बंधन में बंधना नहीं चाहते हैं. शारीरिक संतुष्टि, माँग उनके लिए आज महत्त्वपूर्ण नहीं रह गई है. विवाहपूर्व सम्बन्ध उनके लिए आज अनैतिक नहीं रह गए हैं, ऐसे में वे स्फूर्त रूप से अपने विकास पर ध्यान लगाये हुए हैं. अपने कैरियर को आगे बढ़ाने पर दिमाग लगाये हैं. विवाह आज उनकी अनिवार्यता नहीं वरन सामाजिक परम्पराओं का निर्वहन मात्र रह गया है. ऐसे में थर्टी प्लस जैसे विज्ञापन देखने वालों को आज का समाज कुछ ज्यादा ही आधुनिक समझ आये. इसके बाद भी आज का सत्य यही है कि कल का युवा भले ही तीस साल की उम्र में वृद्ध माना जाने लगता हो मगर आज का युवा तीस के बाद ही अपनी जवानी से परिचय कर रहा है. यही समय की गति है, जो खुद अपनी बनायी गति को बदलता रहता है.

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