कुछ
दिन पहले अयोध्या की गलियों में गूँज रहे जय श्रीराम के नारों में जोश वैसा ही था
जैसा कि उस दिन था. उस दिन गूँज रहे नारों में अपने सांस्कृतिक प्रतीकों को मुक्त
करवाए जाने का आह्वान किया जा रहा था. इन सबके बाद भी उस दिन उन्माद नहीं था. उस दिन
सिर्फ भीड़ नहीं थी. उस दिन आक्रोश नहीं था. ऐसा इसलिए क्योंकि उस दिन किसी तरह की
अराजकता नहीं थी. विशाल जनसमूह बिना किसी नियंत्रण के स्वतः नियंत्रित था. ऐसा
बहुत कम देखने को मिलता है कि इतनी बड़ा जनसैलाब स्वतः नियंत्रित बना रहे. इसीलिए
उस दिन के जनसमुदाय को भीड़ नहीं माना जा सकता क्योंकि भीड़ तो अनियंत्रित हो जाती है.
उस दिन आक्रोश भी नहीं था लोगों के नारों में, उद्घोष में क्योंकि किसी तरह की
हिंसा वहां नहीं थी. किसी तरह की हिंसा करने का विचार भी मन में एक पल को नहीं
पनपा था. उस दिन जनसमूह था, जोश था, नारे थे और इन सबके साथ थी भक्ति, श्रद्धा,
सम्मान. लोगों के दिल में थी सांस्कृतिक भावना. सारा जनसमुदाय अपने मन में अपने आराध्य
के प्रति श्रद्धाभाव लिए था.
एकसाथ
हजारों-हजार लोगों का एकत्र हो जाना. बिना किसी नेतृत्व के, बिना
किसी सञ्चालन के भी सबके सब भगवा ध्वज के निर्देशन में थे. सबके सब स्व-भाव से संचालित
चल रहे थे. बरसों-बरस से अपने अन्य आराध्यों के विरुद्ध चल रही साजिश को देखने के बाद
का जागरण था उस दिन. बरसों-बरस से एक समुदाय विशेष के प्रति चली आ रही तुष्टिकरण की
नीति के खिलाफ एक आवाज़ थी उस दिन. उस दिन की भीड़ दो वर्ष पहले शहीद हुए भाइयों के
सम्मान में भी थी. वही जगह थी, वही गलियाँ थीं, वही रास्ते थे मगर वे कुछ लोग नहीं
थे, जो तुष्टिकरण के लिए, एक मजहब विशेष के विश्वास को पूरा करने के लिए चली
गोलियों का शिकार हो गए थे. उस दिन एकत्र भीड़ में दो साल पहले की गोलियों के खिलाफ
आक्रोश भी था. दो साल पहले उपस्थित जनसमुदाय ने किसी सरकार के खिलाफ हिंसात्मक
आन्दोलन न किया था मगर तुष्टिकरण के लिए गोलियों का सहारा लिया गया था. दो साल बाद
एकत्र जनसैलाब किसी सरकार के खिलाफ कोई उपद्रव नहीं कर रहा था. उस जनसमुदाय ने किसी
हिंसा का सहारा नहीं लिया. उस भक्ति-भाव से भरे जनमानस ने किसी समुदाय विशेष के प्रति
हिंसा का भाव नहीं दिखाया. न उस दिन दिखाई दिया था, न तब जबकि कारसेवक गोलियों का
शिकार हुए थे. वे सब उन्मुक्त भाव से सनातन काल से चले आ रहे अपने सांस्कृतिक प्रतीक
से दासता से मुक्ति चाहते थे. सरकार से बारम्बार अपील थी, सांस्कृतिक प्रतीकों को
गुलामी के निशानों से मुक्त किये जाने की. उनके मन में हिंसा नहीं, नफरत नहीं वरन खुद को मुक्त कर लेने का भाव था. अपने आराध्य को दूसरे के प्रतीक
चिन्ह से बाहर निकाल लाने का बोध था.
जोश,
जनभावना, जयघोष का संगठित स्वरूप उस दिन दिखाई
दिया. भगवा ध्वज के केसरिया रंग में सराबोर, जय श्री राम के उद्घोष
से धरती-आकाश को एक करते हुए जब धूल का गुबार हटा तो सामने सबकुछ साफ़ था. सांस्कृतिक
विरासत पर कब्ज़ा किये बैठी प्रतिच्छाया कहीं दूर-दूर तक नहीं थी. जनसैलाब जिस नियंत्रित
रूप से आगे बढ़ा, उसी नियंत्रित रूप से वापस आने लगा. सांस्कृतिक
प्रतीकों की मुक्ति का जयघोष अपना असर दिखा चुका था. पावन सरयू नदी की लहरें उन्मुक्तता
से वैसी ही हिलोरें मारती नजर आने लगीं. उसने स्वयं में अपना पुराना स्वरूप अपने आसपास
निर्मित होते देखा. विध्वंस पश्चात् सनातन मानक पर निर्मित ढाँचा अपने आसपास न देखकर
पावन किनारों ने अपने क्रीड़ास्थल को पुनः-पुनः उसी सनातनकालीन स्थिति में महसूस किया.
जनसमुदाय के आराध्य, पावन नदी में कभी किल्लोल करने वाले उसके
बाल राम, कभी अयोध्या की गलियों, मैदानों
में विचरण करने वाले उसके किशोर राम, वनवास के बाद नगरवासियों
के ह्रदय में स्थापित उसके राजा राम स्वतंत्र आकाश में अपनी सत्ता का विस्तार पा चुके
थे. राजनैतिक दंभ पाले लोग और तुष्टिकरण करते लोगों के लिए भले ही राम लला खुले
आसमान के नीचे टेंट में विराजमान हो गए हों मगर अब वे किसी गुलामी के प्रतीक की
तालाबंदी में नहीं थे. गुलामी के, विध्वंस के, विवाद के ढाँचे से बाहर निकल वे अब अपने देश के, अपने
भक्तों के, अपने मन के प्रतीक में विराजित थे. जो राम जन-जन
को सहारा देते हों, रोटी, कपड़ा, मकान का प्रबंध करते हों वे स्वतः ही किसी दिन जनमानस
को जागृत करेंगे और पुनः श्रद्धाभाव लिए एकत्र होने वाला जनसमुदाय सांस्कृतिक
प्रतीक के निर्माण में जुट जायेगा.
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