संबंधों
और भावनाओं का कहीं न कहीं गहरा नाता भी है और नहीं भी है. अक्सर देखने में आता है
कि जिससे आपका कोई सम्बन्ध नहीं होता है उससे भी एक तरह का भावनात्मक रिश्ता बन
जाता है और कई बार ऐसा भी होता है कि जिससे सम्बन्ध होता है मगर किसी तरह का
भावनात्मक रिश्ता नहीं बन पाता है. संबंधों और भावनाओं में इस तरह आपसी नाता कहीं
न कहीं इंसानों के अपने व्यवहार के कारण ही उत्पन्न होता है. कई बार जिससे सम्बन्ध
कायम होता है उससे किसी न किसी कारण के चलते भावनात्कामता स्थापित नहीं हो पाती है.
इसके द्वारा भले ही आपसी सम्बन्ध बने रहें मगर उनमें किसी तरह की भावना देखने को
नहीं मिलती है. भारतीय समाज में ऐसे संबंधों की बहुलता देखने को मिलती है जबकि
संबंधों का निर्वहन बिना किसी भावना के किया जाता है. समाज के लिए, परिवार के लिए,
दिखावे के लिए ऐसे संबंधों का निर्वहन सालों-साल किया जाता रहता है, जिनमें किसी
तरह की कोई भावना शेष नहीं रह जाती है. ये किसी भी समाज की सबसे बड़ी बिडम्बना है
जहाँ सम्बन्ध बिना किसी भावना के निर्वहन किये जा रहे हों. सोचने वाली बात है कि
जब दो व्यक्ति संबंधों के स्तर पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर पा
रहे हों वहां वे समाज के स्तर पर, देश के स्तर पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को कैसे
बनाये रख सकेंगे?
किसी
भी समाज के, किसी भी परिवार के स्थायित्व के लिए यह बहुत बड़ी बात है कि उसमें
योगदान देने वालों के आपसी सम्बन्ध किस तरह के हैं. वैश्विक स्तर पर शेष विश्व की
स्थिति किसी से छिपी नहीं है मगर भारतीय समाज में ऐसी स्थिति बहुत ही विचित्र है.
यहाँ पारिवारिक स्थिति को लेकर, सामाजिक स्थिति को लेकर संबंधों में स्थायित्व न
के बराबर देखने को मिलता है. बहुतायत में संबंधों का निर्वहन किसी न किसी मजबूरी
के नाते किये जाता है. इसी कारण से संबंधों में आपसी सौहार्द्र, आपसी समन्वय देखने
को बहुत कम ही मिलता है. यहाँ स्पष्ट कर दें कि संबंधों का आशय सिर्फ पारिवारिक नहीं
है वरन इसमें वे भी सम्बन्ध शामिल हैं जिनका कोई नाम नहीं, जो परिवार से सम्बद्ध
नहीं, जिनके बनाये जाने में किसी तरह का कोई कदम अपनाया नहीं गया होता है. देखने
में आता है कि ऐसे सम्बन्ध जिनके बनने के दौरान किसी तरह का स्वार्थ नहीं होता है,
जिनके बनाये जाते समय किसी तरह का आधार सामने नहीं रखा जाता है वे भी एक समय विशेष
के साथ किसी न किसी तरह से भावनात्मकता से रहित दिखाई देने लगते हैं. ऐसा क्यों
होता है, ऐसा होने के पीछे मूल कारण क्या होता है, यदि इस पर विचार किया जाये तो
ज्ञात होगा कि कई बार क्षणिक स्वार्थ भी ऐसे संबंधों को बिगाड़ने में सबसे अहम्
भूमिका निभाता है. इसके अलावा आपसी विश्वास भी संबंधों में नकारात्मक भाव पैदा
करता है.
किसी
भी तरह के संबंधों के निर्वहन के लिए आवश्यक है कि वे स्वार्थ रहित हों. उनमें आपस
में विश्वास बना रहे. वे एक-दूसरे के प्रति छल, धोखा न करते हों. यदि ऐसा किसी भी
सम्बन्ध के साथ नहीं हो पा रहा होता है तो उनमें स्थायित्व का आभाव देखने को मिलता
है. ऐसे संबंधों में कटुता, कड़वापन सहज रूप में देखने को मिलता है. आज के दौर में
जहाँ कि जरा-जरा सी बात पर स्वार्थ देखने को मिल रहा है, जरा-जरा सी घटना को अहम्
से जोड़कर देखा जाने लगता है, जरा-जरा सी घटना पर अविश्वास जन्मने लगता है वहां
सम्बंधों से भावनात्मकता समाप्त होनी स्वाभाविक है. आज के लिए नहीं वरन भविष्य के
लिए यदि सामाजिक गतिशीलता को बनाये रखना है, संबंधों में एक तरह का स्नेह बनाये
रखना है तो आज ही संबंधों में विश्वास जगाना आवश्यक है. बिना भावनात्मकता के
संबंधों में गंभीरता, स्थायित्व कदापि संभव नहीं. और यदि ऐसा होता है तो यह समाज
के लिए सुखद संकेत नहीं है.
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