18 दिसंबर 2018

सुलगते घावों पर सुकून की चंद बूँदें

34 साल की लम्बी समयावधि के बाद 1984 के नरसंहार का फैसला सुनाया गया. ये उन लोगों के लिए तो ख़ुशी का पल होगा जिन्होंने अपनों को उस हत्याकांड में खोया था. एक व्यक्ति की हत्या के बाद सुनियोजित ढंग से खुद को आलाकमान की निगाह में लाने के लिए खुलेआम कत्लेआम किया गया. अनेकानेक लोग जान से मारे गए, लोग जिन्दा जलाये गए, हजारों की संख्या में घर जला दिए गए. चन्द चश्मदीहों ने हिम्मत जुटाकर आरोपियों को कटघरे में खड़ा किया मगर जब संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति खुद कहे कि बड़ा पेड़ गिरने पर धरती डोलती है तो समझा जा सकता है कि उस मामले में निर्णय आने में इतनी देरी क्यों हो रही थी. इतने वर्षों के बाद उच्च न्यायालय द्वारा यह फैसला आया है, अभी आरोपियों के पास उच्चतम न्यायालय जाने का रास्ता खुला हुआ है. यहाँ सोचा जा सकता है कि एक देशव्यापी नरसंहार का फैसला आने में न्यायालय को इतने साल लग गए तब एक आम आदमी न्याय की आशा में कब तक जिन्दा रहे? 


न्यायालयों की अपनी प्रक्रिया है उससे इंकार नहीं किया जा सकता मगर मामलों को वरीयता के आधार पर सुनवाई के लिए आगे लाने की प्रक्रिया को अमल में लाना होगा. यहाँ किसी आतंकी को फाँसी चढ़ाये जाने के सम्बन्ध में आधी रात से लेकर भोर तक न्यायालय की कार्यवाही चल सकती है किन्तु किसी आम आदमी की जान-माल से सम्बंधित मामले के लिए उसे न्याय के स्थान पर लगातार तारीखें ही मिलती रहती हैं. बहरहाल, अब जबकि 1984 के नरसंहार से सम्बंधित फैसला आ गया है तब इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि आखिर ऐसे लोगों को कब तक राजनीति में स्वीकार किया जाता रहेगा? चारा घोटाले में जेल की सजा पाए नेता जी चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए हैं मगर वे अभी भी राजनैतिक दल के मुखिया हो सकते हैं. वे अभी भी चुनाव प्रचार में भाग ले सकते हैं. वे मुख्यमंत्री बनाये जाने सम्बन्धी मामलों में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. तो फिर उनके चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबन्ध काहे लगाया गया है? सिख नरसंहार जैसे जघन्यतम मामले के आरोपी को सजा मिलना पढ़कर सुखद अनुभूति होती है, हुई है मगर यह तब संतोष की अनुभूति करवाएगी जबकि मामले के उच्चतम न्यायालय में जाने के बाद भी आरोपी को जमानत न मिले. काश कि फैसला सुनाते समय जज साहब की आँखों में छलक आये आँसुओं की लाज कोई अन्य न्यायाधीश महोदय रख लें.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें