ऐसा लगता है जैसे विषय से भटकना हम सबकी आदत में शामिल है. विषयांतर कर देना, मूल मुद्दे से इतर बात करने लगना न केवल आम आदमी की आदत में शामिल है वरन बड़े-बड़े बुद्धिजीवी तक इससे पीड़ित हैं. आए दिन होने वाले सेमिनार, अकादमिक कार्यक्रमों में ऐसे लोगों की सहभागिता देखने को मिलती है. अनेक कार्यक्रमों में, गोष्ठियों में इनके वक्तव्यों को सुनने का अवसर मिलता है. अनेकानेक अवसरों में से कोई एक-आध अवसर ऐसा होगा जिसमें कोई वक़्ता अथवा कार्यक्रम संयोजक अपने उद्देश्य से भटका न हो. यही भटकाव समूचे कार्यक्रम, आयोजन की प्रतिष्ठा, उसके उद्देश्य पर चोट कर देता है. अपने तमाम पुराने अनुभवों को एकबार फिर उसी रूप में देखा. एक बहुत ही सार्थक आयोजन, अत्यंत सारगर्भित विषय सहभागिता करने वालों के भटकाव के कारण अपनी मूल भावना के साथ इंसाफ़ न कर सका. इसमें कुछ हद तक संयोजक को भी शामिल किया जा सकता है.
अवसर था जेंडर संवाद के आयोजन का. महज़ दो शब्दों के इस शीर्षक के पीछे की गम्भीरता को समझने के लिए जिस समझ की आवश्यकता चाहिए थी वह सम्बंधित आयोजन क्षेत्र में तो व्याप्त ही नहीं थी, सहभागियों में भी अधिकांश इसके प्रति संज्ञा-शून्य की स्थिति में रहे. तीन दिवसीय इस आयोजन के द्वारा महिलाओं की स्वतंत्रता, सम्मान, अधिकार की चर्चा होनी थी जो वक्ताओं के अपने व्यक्तिगत अनुभवों से गुज़रती हुई स्त्री-पुरुष अंतर्विरोध, उनके आपसी संघर्षों, महिला वर्ग के इतिहास, समाज की पूर्वकालिक मान्यताओं पर ही केंद्रित बनी रही. जेंडर फ़्रीडम के रूप में संचालित साइकिल यात्रा के साये में चर्चा स्त्री-पुरुष सम्बंधों, महिलाओं की शारीरिक स्थिति, माहवारी पर आकर टिकती रही. समझ नहीं आया कि तमाम वक़्ता जेंडर की नवीन परिभाषा तय करने की ज़िद सी क्यों पकड़े रहे? स्त्री को ज़बरन स्त्री-विषयक अलंकरणों से लादने का विरोध होना चाहिए पर उसका वास्तविक स्वरूप सुदूर ग्रामीण अंचल की महिलाओं तक कैसे और किस रूप में पहुँचेगा, यह स्पष्ट नहीं किया जा सका.
जेंडर को समाज द्वारा और सेक्स को प्रकृति द्वारा बनाए जाने को स्थापित करते हुए सेक्स को प्राकृतिक लैंगिक और जेंडर जो समाजिक लैंगिक के रूप स्वीकारा गया. समझना और समझाना होगा कि जेंडर के जिस हिन्दी अनुवाद लिंग को पुरुष सत्ता का पर्याय बताते हुए उसका बहिष्कार करने की बात अनेक वक्ताओं, आयोजक ने की, उसी को सामाजिक लैंगिक या सामाजिक लिंग के रूप में स्वीकार कर किस नवीन अवधारणा को स्वीकार किया जा रहा है? जेंडर के हिन्दी अनुवाद लिंग को नकारते हुए सामाजिक लिंग को स्वीकार करने से क्या पुरुषवादी सत्ता का लोप हो जाएगा? क्या ऐसा कर देने भर से महिलाओं को जेंडर फ़्रीडम मिल जाएगा? क्या इस परिभाषा का, शब्दावली का उपयोग महिलाओं को सशक्त बना देगा? इस बारे में आयोजक से लेकर वक्ताओं तक द्वारा मौन बनाए रखा गया.
जेंडर शब्द के अलावा चर्चा का बिंदु माहवारी शब्द भी बना रहा. घूम-फिर कर माहवारी पर चर्चा को मोड़ देने का औचित्य समझ से परे रहा. यहाँ विचारणीय यह है कि माहवारी के दिनों में महिलाओं को अपवित्र मानने जैसी किसी भी मान्यता का विरोध किया जाना चाहिए पर इसके साथ इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि इस विषय पर घरों में आम चर्चा किस रूप में हो. देश की अत्याधुनिक महिलाओं द्वारा हैप्पी टू ब्लीड का आयोजन किया जाना भी एक सत्य है तो माहवारी पर चुप्पी धारण कर जाना भी एक सत्य है. अभी अनेकानेक क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ इस विषय पर चर्चा को उचित नहीं माना जाता. सामान्य शिष्टाचार में आज भी ऐसा सोचना कल्पना से परे लगता है जबकि बाप-बेटी आपस में माहवारी पर चर्चा करें. यह भी मुश्किल सा ही है कि भाई-बहिन माहवारी पर चर्चा करें. इन दिनों में महिलाओं की कठिनाई, उसकी शारीरिक समस्या, कष्ट, उनके निराकरण, उन दिनों में साफ़-सफ़ाई की सामान्य चर्चा कई बार के चरणों के बाद होना सम्भव दिखती है. एकाधिक स्थितियों में ही सम्भव है कि कोई पति अपनी पत्नी की इन दिनों की शारीरिक पीड़ा को न समझता होगा. शहरी क्षेत्रों में इन दिनों में आपसी समन्वय, सहयोग देखने को मिलता है, हाँ ग्रामीण अंचलों में सभी इस विषय में जागरूकता लाने की आवश्यकता है. जेंडर फ़्रीडम और माहवारी की चर्चा का यहाँ उद्देश्य और सार्थकता को स्पष्ट करने के यहाँ भी पूर्वाग्रहयुक्त विमर्श होता रहा.
बेटियों को कैसे सशक्त बनाया जाए, उनको कैसे स्वाभिमानी बनाया जाए, उनको अपने अधिकारों के लिए कैसे सजग किया जाए, अपने प्रति होने वाले अत्याचार के विरुद्ध कैसे लड़ा जाए आदि बिंदुओं पर किसी तरह की चर्चा सामने नहीं आई. जेंडर संवाद के द्वारा जेंडर समानता स्थापित किए जाने की भावना का लोप दिखाई दिया. समाज के लोगों तक कैसे संदेश जाए कि किसी भी बेटी पर अत्याचार समूचे समाज पर तमाचा है, व्यवस्था पर तमाचा है यह परिभाषित नहीं किया गया. आयोजन स्थल की समस्याओं का ज़िक्र करने के बाद भी वहीं के स्त्री-विषयक मूल मुद्दों को विस्मृत कर देना भी आयोजक की, वक्ताओं की भूल रही. राइड फ़ोर जेंडर फ़्रीडम के साथ शुरू यात्रा जेंडर संवाद के द्वारा एक नई राह का निर्माण कर सकती थी पर अफ़सोस ऐसा होता हाल-फ़िलहाल तो नहीं दिखा. समुचित व्यवस्थित निर्देशन के अभाव में इसे एक सार्थक पहल की भ्रूण हत्या कहा जा सकता है. एक विचार, एक यात्रा पूर्णतः पल्लवित-पुष्पित होने के पहले ही उसी रूप में खड़ी दिखाई देने लगी, जहाँ से आरम्भ हुई थी. कदाचित यह सम्पूर्ण आयोजन में व्याप्त भटकाव का परिणाम कहा जाएगा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें