जेंडर संवाद के लिए शिवहर (बिहार) का चुना जाना और देश के कई राज्यों से बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, रंगमंचीय प्रतिभाओं का एकजुट होना अपने आपमें किसी यज्ञ से कम नहीं है. तीन दिवसीय इस आयोजन की अंतिम रिपोर्ट अभी बनाया जाना शेष है क्योंकि अंतिम दिन, 24 दिसम्बर अभी बाक़ी है. दो दिन के संवाद, परिचर्चा से किसी तरह का अंतिम निष्कर्ष निकालना भले ही जल्दबाज़ी हो मगर उनकी सुगंध अवश्य महसूस की जा सकती है. महिलाओं की समानता, स्वाधीनता, अधिकार आदि से सम्बंधित इस आयोजन में अनेक लोगों के, जिनमें स्त्री, पुरुष दोनों ही शामिल रहे, विचार सामने आए. उनके आधार पर किसी तरह का निर्णय या निष्कर्ष दे देना जल्दबाज़ी ही होगी. इसके बाद भी जैसा कि महिला-विषयक आयोजनों के तकनीकी सत्रों की स्थिति होती है, लगभग वैसी ही स्थिति इस आयोजन में देखने को मिली.
जेंडर संवाद के द्वारा महिलाओं की स्थिति के साथ-साथ जेंडर पर भी गम्भीर चर्चा की माँग थी. इस आयोजन के द्वारा जेंडर के हिन्दी अनुवाद ‘लिंग’ अथवा ‘लैंगिक’ को नकारते हुए इस शब्द को इसी रूप में स्वीकार किए जाने पर ज़ोर दिया गया. जेंडर और सेक्स की निर्धारित परिभाषाओं को ख़ारिज करते हुए इनका अलग निर्धारण अपनी बौद्धिकता को भले ही पोषित करता हो किंतु वह महिलाओं की समाजिक स्थिति को प्रभावित करने की क्षमता का विकास क़तई नहीं करता है. प्राकृतिक लिंग और सामाजिक लिंग जैसे शब्दों के द्वारा अकादमिक लेखों में, वक्तव्यों में महिलाओं की परस्थिति को परिभाषित करने के अलावा कोई और काम होने वाला नहीं है. शब्द-विस्तार, शब्द-संकुचन के नियमों को ख़ारिज करते हुए जब सार्थक चर्चा शब्दों के स्त्रीलिंग, पुर्लिंग उनके व्यवहार पर टिक जाए तो साफ़ समझ आता है कि अभी वास्तविक निष्कर्ष बहुत दूर है. महिलाओं की जीवन-चर्या, पुरुष का उसके लिए सहयोग, महिला का महिला के लिए सहयोग, महिलाओं-पुरुषों की प्राकृतिक शारीरिक बनावट, उनकी अपनी माँग-पूर्ति पर निरर्थक चर्चाओं के बीच संवाद गुम सा होता समझ आया. हमेशा की तरह एकमात्र स्थिति ज्यों की त्यों दिखाई दी और वो थी एक विभेद को समाप्त करने के लिए दूसरा विभेद पैदा करना. इस तरह की अनावश्यक बहसों, एक-दूसरे को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी न कहने के बाद भी प्रतिद्वंद्वी जैसा समझना समाज में स्त्री और पुरुष के बीच एक खाई ही पैदा कर रहा है. ऐसे किसी भी आयोजन में शामिल होने वाले स्त्री, पुरुष गम्भीरता से दोनों के सह-सम्बंध, दोनों के समन्वय, दोनों के साहचर्य पर एकराय होने का प्रयास नहीं करते हैं. इसके उलट दोनों ही एक-दूसरे की खींची लकीर को मिटाने की कोशिश में लगे रहते हैं. ऐसा ही कुछ-कुछ इन चर्चाओं में यहाँ भी दृष्टिगत हो रहा था. होना यह चाहिए कि अपनी लाइन को बड़ा किया जाए, ख़ुद को सक्षम बनाया जाए. स्त्रियों का स्त्रियों के रूप में विकास करने से इतर उनका पुरुष बनने की दिशा में अंधी दौड़ लगाना दिखता रहा.
विचार, व्यवहार, व्यक्तित्व अपने और समाज के विकास हेतु होना चाहिए न कि विभेद बढ़ाने के लिए. तमाम बहसों, विचारों को, तर्कों-कुतर्कों को, उदाहरणों को देखने-सुनने के बाद मन अचानक ही कह उठा कि यदि इस देश में कभी वर्ग-संघर्ष जैसे हालात बने तो वह किसी जाति के बीच नहीं, किसी धर्म के बीच नहीं, किसी क्षेत्र के बीच नहीं वरन स्त्री और पुरुष के बीच होगा. हो सकता है कि ये आज हास्यास्पद कल्पना लगे किंतु जेंडर संवाद की आज की चर्चा को सुनकर इसे वास्तविक मानने से कोई न करेगा, बस उसने पूर्वाग्रह रहित होकर विमर्श, बहस, संवाद को सुना, समझा, परखा हो.
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