तुम
इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो, किसी ग़ज़ल की इस एक पंक्ति
ने हँसने-मुस्कुराने तक पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. क्या वाकई ऐसा है कि ज्यादा
हँसने-मुस्कुराने वाला व्यक्ति अपने भीतर किसी दर्द को छिपाने की कोशिश कर रहा है?
क्या वाकई यह सत्य है कि जो जितना हँसता है, जितने तेज ठहाके लगाता है वह अन्दर से
उतना ही दुखी होता है? हो सकता है ऐसी रचना करने वाले के सामने इस तरह का कोई
उदाहरण सामने आया हो और उसने ऐसी पंक्ति रच दी हो. ये हो सकता है कि किसी व्यक्ति
ने किसी अपने के सामने अपने दुःख को जाहिर न होने देने के लिए हँस कर उससे व्यवहार
किया हो और उसी को ऐसी बात का पर्याय मान लिया गया हो. यदि उक्त पंक्ति के दर्शन
को विचार किया जाये तो वास्तव में भावनात्मक रूप से कोई व्यक्ति नहीं चाहता है कि उसका
कोई करीबी उसके दुःख के कारण दुखी हो. इसी कारण से बहुधा देखने में आता है कि दुःख
में लोग जबरन मुस्कुराने की, खुश रहने की कोशिश करते हैं. यहाँ भी एक बात विचारणीय
है कि जबरन हँसने वालों की मुस्कराहट स्वतः सबकुछ बयान कर देती है. उनके हँसने
में, उनके मुस्कुराने में, उनके खुश रहने में एक तरह की बनावट नजर आती है. उनकी
समूची ख़ुशी पर, समूचे सुखों पर एक मुस्कान भी कमजोर साबित होती है, एक ठहाका भी खोखला
समझ आता है.
वास्तविकता
ये है कि समाज में कोई भी कालखंड रहा हो सबके सामने कोई न कोई समस्या अवश्य रही
है. व्यक्ति कभी सामाजिक स्थिति के चलते, कभी आर्थिक स्थिति के चलते, कभी
सांस्कृतिक स्थिति के चलते, कभी शैक्षिक स्थिति के चलते, कभी किसी अन्य स्थिति के
चलते लगातार परेशान ही रहा है. ऐसे में वही लोग हँसने का जोखिम उठा सके हैं
जिन्होंने समय-स्थिति के वश में रहना नहीं सीखा है. उन लोगों ने भी दुखों को मात
दी है जिन्होंने वर्तमान को जीना अपना मकसद बना रखा हो. ऐसे लोगों के लिए क्या
दुःख, क्या सुख. ये लोग समय को अपने हिसाब से संचालित करते हुए वर्तमान का आनंद
उठाते हैं और दुखों को किनारे लगाये रहते हैं. ऐसे लोगों के ठहाके हर परिस्थिति
में एकसमान ढंग से सुनाई देते हैं. ऐसे लोगों के चेहरे पर मुस्कराहट कभी भी लोप
नहीं होती है. असल में ऐसे लोग वे लोग होते हैं जो समय को, परिस्थितियों को,
दुःख-सुख को अपने नियंत्रण में रखते हैं न कि उनके नियंत्रण में रहते हैं. ऐसे लोग
अपने नैसर्गिक व्यवहार को, नैसर्गिक चरित्र को छोड़ नहीं पाते हैं. इनके लिए हँसना,
ठहाके लगाना, मुस्कुराना सभी स्थितियों में एकसमान रहता है. ऐसे में वे कलमकार या
फिर समाज के अन्य लोग जिन्होंने जीवटता नहीं देखी हो, दुःख-सुख का समान भाव न देखा
हो प्रत्येक हँसने वाले को दुखों से घिरा मान बैठते हैं. हर ऐसा व्यक्ति जो सरेराह
ठहाका लगाता दिखता है, ऐसे लोगों की निगाह में दुखों से घिरा होता है.
चलिए,
एक पल को मान भी लिया जाये कि यही सच है. जो व्यक्ति जितना हँस-मुस्कुरा रहा है
उतना ही दुःख से घिरा है, कष्टों में है तो अन्य लोगों को उसके इस एहसास से क्या
लेना-देना? क्या समाज का कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के दुःख को हमेशा के लिए समाप्त
कर सकता है? क्या समाज में कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति का साथ पसंद करेगा जो
अपने दुखों का रोना रोता रहे? क्या ऐसे व्यक्ति के साथ कोई भी ख़ुशी महसूस कर सकेगा
जो सिर्फ और सिर्फ आँसुओं के साए में रह रहा हो? जब समाज में कोई व्यक्ति किसी ऐसे
व्यक्ति का साथ देने को तैयार नहीं होता जो चौबीस घंटे बस दुःख में रहे, रोता रहे
तो फिर उसके हँसने-रोने का क्या अर्थ? हम सभी उस व्यक्ति का धीरे-धीरे साथ छोड़ने
लगते हैं जो सिर्फ दुखों का, कष्टों का रोना रोता है. हम सभी सदैव अपने आसपास
हँसने वाले, मुस्कुराने वाले लोगों को ही पसंद करते हैं. दुःख की घड़ी में अपने
लोग, घर-परिवार के लोग भी तभी तक सहारा देते हैं जब तक कि दुखों से घिरा व्यक्ति
खुद अपनी मदद करता है. ऐसे में सबसे शुरू में दी गई पंक्ति का कोई अर्थ सामान्य रूप
में समझ नहीं आता है. बाकी सत्य यह है कि
दर्द
दिल में दबाकर हँसना सबको नहीं आता,
ये
हुनर वो है जो आँसुओं को पीकर है आता.
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