नींद ख़ामोशियों पर छाने लगी,
इक कहानी फिर ठहर जाने लगी.
दर्द को रोका धीरे-धीरे मगर,
सैलाब दिल में लहर लाने लगी.
कब बदल जाए मौसम क्या पता,
तेज़ बारिश में धूप मुस्काने लगी.
हौसलों से हारती हैं मुश्किलें,
लौ दिए की अंधियारा मिटाने लगी.
आ रही वीरानियों में भी रौनक़ें,
बस्ती ख़ुद को फिर से बसाने लगी.
ज़ुल्म मिल करने लगे हैं रात-दिन,
अब तो क़ुदरत भी क़हर ढाने लगी.
ज़ख़्म कुरेदने का हुनर सीखकर ज़ुबां,
मुहब्बतें मिटा नफ़रतें फैलाने लगी.
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कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
21-10-2018
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