करवाचौथ हिन्दुओं का
एक प्रमुख त्योहार है. इसे मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब,
हरियाणा और राजस्थान में मनाया जाता है. हिन्दी महीनों के अनुसार कार्तिक
मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को सुहागिन (शादीशुदा) महिलाओं द्वारा इसे मनाया जाता
है. यह व्रत सूर्योदय से पहले आरम्भ होकर रात में चंद्रमा दर्शन के साथ अपनी संपूर्णता
को प्राप्त होता है. करवाचौथ व्रत ग्रामीण से लेकर आधुनिक महिलाएं बडी़ श्रद्धा एवं
उत्साह के साथ रखती हैं. यह आवश्यक नहीं कि सभी महिलाएं ऐसा करती हों. शास्त्रों के
अनुसार ऐसी मान्यता है कि पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस
व्रत को किया जाता है. वर्तमान में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार
में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं.
आज करवाचौथ होने के
कारण बहुत सी महिलाओं द्वारा पति की दीर्घायु कामना के साथ इस व्रत को पूर्ण किया
गया. जैसा कि विगत कुछ वर्षों से सोशल मीडिया के माध्यम से एक परम्परा का निर्वाह
कतिपय आधुनिकतावादियों द्वारा किया जाने लगा है कि जैसे ही कोई हिन्दू पर्व आया
नहीं कि उनकी दार्शनिकता बाहर निकली नहीं. कुछ ऐसा इधर भी हुआ, हो रहा है. महिला
मोर्चा का संगठन संभाले स्त्री-पुरुष एक स्वर से करवाचौथ व्रत का, इसे सम्पूर्ण
करने वाली स्त्रियों का उपहास उड़ाने में लग गए. यहाँ वे महिलाएं इनके निशाने पर
रही जो विगत कई वर्षों से परम्परा के नाम पर ये व्रत करती चली आ रही हैं. इसके
साथ-साथ वे महिलाएं भी निशाना बनीं जो खुद को आधुनिकतावादी बताती हैं इसके बाद भी
इस व्रत को कर रही हैं. यहाँ ऐसी महिलाओं का उनको जवाब दिया जाता है कि वे किसी
परम्परा का निर्वहन नहीं कर रहीं वरन खुद के सजने-सँवरने के शौक को पूरा कर रही
हैं. इस व्रत के द्वारा वे आयोजन का आनंद ले रही हैं. मेंहदी, साज-श्रृंगार आदि के
द्वारा अपने रूप-सौन्दर्य में निखार ला रहीं हैं. ऐसी आधुनिकतावादी महिलाएं ऐसे
व्रत के रहने के बाद भी खुद को ईश्वरीय श्रद्धा से इतर बताती हैं. देखा जाये तो सच
भी है, किसी भी व्यक्ति को अपने मन-मष्तिष्क के अनुसार किसी भी आयोजन को अपनी तरह
से मनाये जाने की आज़ादी है. यह उसकी मनोदशा, व्यक्तित्व आदि पर निर्भर करता है कि
वह किसी भी पर्व को, आयोजन को, परम्परा को किस तरह से स्वीकार करता है.
इस स्वीकार्यता के
बाद, इस आज़ादी के साथ ही ऐसी स्थिति भी आती है जबकि यही महिलाएं खुद को परम्परा
में बाँधकर पुरुषों को दोषी बताने निकल पड़ती हैं. इसके लिए वे इसी करवाचौथ व्रत का
सहारा लेती हैं. ऐसी महिलाओं को जब भी किसी बहाने से, किसी आयोजन के बहाने से,
किसी व्रत के द्वारा पुरुषों को आरोपित करना होता है तो वे पुरुषों को दोषी बनाते
हुए करवाचौथ व्रत को ही केंद्र में रखती हैं. तब इन महिलाओं द्वारा आरोप लगाया
जाता है कि एक पत्नी अपने पति की दीर्घायु के लिए करवाचौथ का व्रत करती है. दिन भर
बिना कुछ खाए-पिए भूखी रहती है और पति न तो उसके लिए कोई व्रत रखता है, न ही इस
व्रत में सहयोगी बनता है. यहाँ आकर इन्हीं महिलाओं को समझ नहीं आता है कि सत्य क्या
है, वे कहना क्या चाहती हैं, वे करना क्या चाहती हैं. एक तरफ वे इसी व्रत को महज
अपने शौक, आनंद के लिए मानती हैं, अगले ही पल इसी का आधार वे पति की उम्र से जोड़ने
लगती हैं. यदि इस पर्व का आयोजन उनकी निगाह में महज मौज-मस्ती, एक दिन के आनंद के
लिए है तो वे इसे किसी दूसरी औरत के लिए पति की दीर्घायु से क्यों जोड़ने लगती हैं?
किसी भी मौज-मस्ती के, आनंद के, शौक के दिन या रात का, पर्व का, व्रत का सम्बन्ध
किसी की आयु से कैसे हो सकता है? आधुनिकता के वशीभूत अनिश्चय की स्थिति में डोलती
आधुनिक महिलाओं को खुद स्पष्ट नहीं है कि सज-संवर कर इस व्रत को मनाने का समर्थन
करें या फिर इसके द्वारा अपनी मौज-मस्ती का? उनको महज हिन्दू व्रत-त्योहारों का
विरोध करना है, सो वे सज-संवर कर इसे पूरी तन्मयता से करने में लगी हैं. उन्हें न
अपने शौक से मतलब है न दूसरी महिला के पति की दीर्घायु की कामना से.
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