कोई क्या कहेगा, उसे कहने दो,
ये वक़्त का परिंदा है, उसे उड़ने दो.
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लिखे जा रहे कविता संग्रह 'रात का शहर' से...
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ये वक़्त का परिंदा है, उसे उड़ने दो.
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लिखे जा रहे कविता संग्रह 'रात का शहर' से...
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यादों में बस गया था वो रात का शहर,
इक अफसाना बन गया वो रात का शहर.
साथ बैठकर पढ़ने का करके बहाना,
यार-दोस्तों के साथ घर से निकल जाना.
साइकिल का उड़ना, हवा से बातें करना,
किसी चौखट पर ठिठकना फिर आगे बढ़ना.
यूँ बेफिक्र, बेमकसद सी चलती आवारगी,
किसी दुकान पर चाय-पकौड़ी पर तना-तनी.
खुले आसमान किसी मैदान में खड़े ही खड़े,
सपनों की सीढ़ियाँ न जाने कितनी बार चढ़े.
हर बार लगता कितना सुहाना है सफ़र,
हमसफ़र सा लगने लगता वो रात का शहर.
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