पिछले दिनों पुलिस ने
संदिग्ध शहरी नक्सलियों के ठिकानों पर देशभर में छापेमारी की और कइयों को गिरफ्तार
किया. भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच के दौरान पुलिस ने एक पत्र बरामद किया जिसके
द्वारा नक्सलियों द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की साजिश का खुलासा हुआ.
इसकी जांच करते हुए यह कार्यवाही की गई. इस छापेमारी में प्रमुख वरवर राव, गौतम नौलखा, अरुण परेरा, सुधा भारद्वाज निशाने पर रहे हैं. शहरी नक्सली
के रूप में कुख्यात ये लोग पिछले कुछ दिनों से सुरक्षा एजेंसियों के रडार पर थे.
गिरफ्तार शहरी नक्सलियों को 6 सितंबर को उच्चतम न्यायालय में होने वाली अगली सुनवाई
तक घर में ही नजरबंद रखा जाएगा. यह फैसला तीन जजों की बेंच ने सुनाया. अपना फैसला सुनाते
हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि विरोध लोकतंत्र का सुरक्षित द्वार है. यदि आप
सुरक्षित द्वार मुहैया नहीं करवाएंगे तो प्रेशर कुकर फट जाएगा.
सच है, लोकतंत्र में
विरोध होना चाहिए पर किस हद तक? विरोध हो मगर उसका स्वरूप भी तो निर्धारित हो.
नक्सलवाद का चेहरा आज सिर्फ हिंसात्मक गतिविधियों के रूप में जाना जाता है. भारतीय
कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल द्वारा सन 1967 में सत्ता
के खिलाफ़ शुरू हुआ सशस्त्र आंदोलन पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से शुरू
हुआ, जिसे अब नक्सलवाद के नाम से जाना जाता है. वे दोनों नेता चीन के कम्यूनिस्ट नेता
माओत्से तुंग से प्रभावित थे और मानते थे कि न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र
क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है. वर्तमान में नक्सलवाद सरकार के सामानांतर एक
सत्ता स्थापित करने की मानसिकता से काम कर रहा है. अब उनक्सलियों द्वारा आदिवासियों
की आड़ लेकर राजनैतिक संरक्षण प्राप्त किया जा रहा है जो कहीं न कहीं उन्हें सत्ता के
करीब लाता है जो आज राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. वर्तमान में देश के
लगभग एक सैकड़ा जिलों में नक्सलवादियों का कब्ज़ा है. यह क्षेत्रफल लगभग 92 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र
है. यह देश के दस राज्यों - उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश,
बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल,
छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र,
आंध्रप्रदेश आदि तक फैला हुआ है.
शहरी नक्सली के रूप
में चिन्हित किये गए जिन लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं, उनके समर्थन में सरकार
विरोधी दल तुरंत सामने आ गए. दरअसल ऐसे लोग वे चेहरे हैं जो भले ही शैक्षिक प्रोफाइल
और चेहरे से सभ्य समझ आते हों मगर ये लोग आदिवासी क्षेत्रों में जाकर लोगों को सरकार
के खिलाफ भड़काते हैं. वहां की विकास की परियोजनाओं में बाधा उत्पन्न करते हैं. इनका
यही उद्देश्य रहता है कि पिछड़े क्षेत्रों में किसी भी तरह से विकास न होने पाए.
यही पढ़े-लिखे शहरी नक्सली ग्रामीणों को सरकार के विरुद्ध उकसाकर अपना उल्लू सीधा
कर रहे हैं. इनके भड़काऊ बयानों और कृत्यों से ही हिंसा भड़कती है और सरकार के खिलाफ
आंदोलनों की राह आसान की जाती है. शहरी नक्सलियों के समर्थन में भले ही राजनैतिक
दल सरकारी कार्यवाही का विरोध कर रहे हों मगर उन्हें सोचना चाहिए कि यहाँ मामला
देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा का है. इससे पूर्व की केद्र सरकार ने भी एक समय
शहरी नक्सलियों को वनों, जंगलों, गाँवों में रह रहे नक्सलियों से अधिक खतरनाक
बताया था. आज वही सरकार के इस कदम का विरोध कर रही है. हर एक कदम पर राजनैतिक लाभ
लेने की मानसिकता को जब तक छोड़ा नहीं जायेगा, तब तक राष्ट्रहित की बात करना बेमानी
होगा. जिस तरह से देश भर में केंद्र सरकार के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है, देश
में अघोषित आपातकाल लगा बताया जा रहा है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरा लगा
होना बताया जा रहा हो वह राजनैतिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं है.
हालाँकि जो लोग केंद्र सरकार का, भाजपा का, नरेन्द्र मोदी का विरोध करते-करते देश
का विरोध करने लगे हों वे प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश करने वालों का विरोध
क्यों करेंगे? उन्हें शहरी नक्सली शब्द भी काल्पनिक अवधारणा महसूस हो रही होगी.
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