17 अगस्त 2018

वो सवाल ही दोहरा देते खामोश जाते अटल जी


मौत से कई बार ठनी और हर बार मौत को सामने से वार करने की चुनौती देकर वापस लौटाते रहे. इस बार फिर मौत से ठनी. इस बार की ठना-ठनी कुछ गंभीरता से हो गई. अबकी न मौत वापस जाने को तैयार दिखी और न ही राजनीति के अजातशत्रु हारने को राजी हुए. भाजपा के ही नहीं वरन राजनीति के भीष्म पितामह रूप में स्वीकार अटल जी विगत लगभग एक दशक तक अटल बने रहे. महाभारतकालीन भीष्म पितामह की भांति अटल जी ने कोई प्रतिज्ञा तो नहीं ले रखी थी किन्तु भाजपा रुपी हस्तिनापुर को वे सुरक्षित देखना चाहते थे; भारत माता को सुरक्षित हाथों में देखना चाहते थे; संसद में किसी समय संख्याबल को लेकर हुए उपहास पर दिए गए जवाब को सार्थक देखना चाहते थे; अंधियारी रात में हवा-पानी के किनारे किये गए हुँकार कि कमल खिलेगा, अवश्य खिलेगा को साकार होते देखना चाहते थे; इसी कारण पिछले एक दशक से अधिक का समय वे नितांत एकांतवास की स्थिति में व्यतीत करने के बाद भी आमजनमानस के बीच पूरी तरह रचे-बसे रहे. मौत से ठना-ठनी होने के बाद भी मौत के साथ चलने को तब तक तैयार नहीं हुए जब तक कि वह सब नहीं देख लिया जो वे देखना चाहते थे. ऐसा लगा मानो भीष्म पितामह की भांति समय का इंतजार करने के बाद उन्होंने मौत को सीधे-सीधे हराने के बजाय उसे जिताकर हराने का विचार बनाया.


मौत से उनकी वर्षों पुरानी ठना-ठनी बंद हुई. वे मौत को जिताने का भ्रम पैदाकर खुद जीतकर अनंत यात्रा पर उसके साथ निकल गए. लगभग एक दशक तक सार्वजनिक जीवन से लगभग विलुप्त, दूर रहने के बाद भी जब वे तिरंगे का आँचल लपेट मौत के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चले तो वे अकेले नहीं थे. उनका विशाल भाजपा परिवार उनके साथ था. उनकी भारतमाता की संतानें उनके साथ थीं. उनके सहृदय व्यवहार के कायल सभी धर्म, जातियाँ, वर्ग उनके साथ थे. उनकी राजनैतिक शुचिता के प्रशंसक अनेक राजनैतिक दल, व्यक्ति उनके साथ थे. अपनी कार्यप्रणाली और निर्भीक निर्णय क्षमता का वैश्विक स्तर पर लोहा मनवाने वाले देशों के लोग उनके साथ थे. सारा देश ही नहीं वरन समूचा विश्व उनके साथ चल रहा था. ये सब उनकी वो थाती है जो मौत के जीत जाने के बाद उसे हारा साबित कर रही थी. वे अब एक शरीर के रूप में नहीं, एक व्यक्ति के रूप में नहीं, एक कवि के रूप में नहीं, एक राजनेता के रूप में नहीं वरन एक-एक व्यक्ति के रूप में जीवित हो उठे थे; एक-एक नागरिक के रूप में जिन्दा दिख रहे थे; एक-एक साँस में जीवन निर्वहन करते दिख रहे थे; अपनी अंतिम यात्रा में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शामिल एक-एक व्यक्ति में वे एक एहसास के सहारे जिंदा दिखे. यह देखकर मौत खुद हतप्रभ दिखी. जीतने के बाद भी हारी हुई लगी. उनके लम्बे एकांतवास को तोड़कर मौत जब उन्हें बाहर लेकर आई तो सोचा होगा कि वे खामोश ही रहेंगे. उनका बाहर आना हुआ तो उनकी कविताएँ बोलने लगीं, उनके संसद में दिए गए चुटीले अंदाज के कथन बोलने लगे, सार्वजनिक सभाओं में दिए गए उनके भाषण बोलने लगे, समरसता, मानवता, शांति के लिए किये गए उनके प्रयास बोलने लगे.


आज भी याद है उनका वो बोलना. हास-परिहास के उसी चिर-परिचित अंदाज में उनका बोलना. परिवार के बुजुर्ग की तरह से पढ़ाई के बारे में पूछना. ढाई दशक से अधिक समय पहले उनका पहली बार स्पर्श. उनके चरणों का स्पर्श. उनका प्यार से सिर पर हाथ फिराना. खुश रहो का आशीर्वाद देना. उस समय भी और आज भी अटल जी सम्मोहित व्यक्तित्व दिखे. ग्वालियर के शैक्षिक प्रवास के दौरान अनेकानेक गतिविधियों में सहभागिता बनी ही रहती थी. ऐसी ही एक सहभागिता के चलते पता चला कि अटल जी का एक कार्यक्रम है. हम हॉस्टल वालों को कुछ जिम्मेवारियों का निर्वहन करना है. कोई मंच की व्यवस्था में, को खानपान की व्यवस्था में, कोई जलपान की व्यवस्था में, कोई यातायात की व्यवस्था में, कोई अतिथियों के व्यवस्थित ढंग से आने-जाने की व्यवस्था में. सहज आकर्षित करने वाले, सम्मोहित करने वाले, मुस्कुराते चेहरे के साथ अटल जी मंचासीन हुए. सामान्य सा मंच, सामान्य सी व्यवस्था, गद्दे-मसनद के सहारे टिके, अधलेटे, बैठे मंचासीन अतिथि. अटल जी से मिलने का लोभ हम हॉस्टल के भाइयों में था. व्यवस्था हमारे ही हाथों थी सो कभी कोई किसी बहाने मंच पर जाता, तो कभी कोई किसी और बहाने से. आज की तरह कोई तामझाम नहीं, कोई अविश्वास नहीं, फालतू का पुलिसिया रोब नहीं. मंचासीन अतिथियों से मिलने का सबसे आसान तरीका था पानी के गिलास पहुँचाते रहना. तीन-चार बार की जल्दी-जल्दी पानी की आवाजाही देखने के बाद अटल जी ने मुस्कुराते हुए बस इतना ही कहा कि क्या पानी पिला-पिलाकर पेट भर दोगे? भोजन नहीं करवाओगे? अपने पसंदीदा व्यक्ति से बातचीत का अवसर, बहाना खोजते हम लोगों से पहला वार्तालाप इस तरह मजाकिया, सवालिया अंदाज में हो जायेगा, किसी ने सोचा न था. हम सब झेंपते हुए मंच से उतर आये मगर कार्यक्रम के बाद भोजन के दौर में खूब बातें हुईं. खुलकर बातें हुईं.  

काश कि वे आज भी वैसे ही बोल देते. काश कि आज उनको पानी पिलाने के बहाने उनके पास तक जाना हो पाता तो शायद वे वही सवाल दोहरा बैठते. काश कि वे आज चरण स्पर्श करने पर उसी तरह आशीर्वाद भरा हाथ सिर पर फिरा देते. अब तो बस काश ही काश है, याद ही याद है.  



2 टिप्‍पणियां:

  1. जितने लोग आज अटल जी के निधन पर दुःखी और उदास दिख रहे है, काश इन्ही लोगों ने अटल जी को बस एक और मौका दिया होता तो देश के हालात ही कुछ और होते लेकिन हम ना तो तब आलू, प्याज, पेट्रोल से ऊपर उठ पाए थे और न अब। हमने तो अटल जी जैसी प्रतिभा को बहुत पहले अपने ही हाथों खो दिया था। आज तो उन्होंने बस देह त्यागा है।
    सादर नमन

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  2. ऐसे महापुरूष का सामान्य सा आर्शीवाद ही जीवन सार्थक बनाने के लिये काफी है

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