उस
दिन सभी लोग बैसाखी का पर्व पूरे उत्साह से मना रहे थे. जी हैं, 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। वैसे तो यह पूरे भारत
का एक प्रमुख त्योहार है परंतु पंजाब और हरियाणा के किसान रबी की फसल काट लेने के बाद
नए साल की ख़ुशी के रूप में इसे विशेष रूप से मनाते हैं. इसी दिन, 13 अप्रैल 1699 को दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने
खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसीलिए भी बैसाखी पंजाब और आसपास के क्षेत्र में सबसे
बड़े त्योहार के रूप में मनाया जाता है.
सन
1918 में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन
समिति नियुक्त की गई थी, जिसकी ज़िम्मेदारी ये अध्ययन करना था कि पंजाब और बंगाल में
ब्रिटिशों का विरोध किन विदेशी शक्तियों की सहायता से हो रहा था. इस समिति के सुझावों
के अनुसार भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) का विस्तार करके भारत
में रॉलट एक्ट लागू किया गया था जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए
था. इस एक्ट के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए
गए थे जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं को बिना
मुकदमे के जेल में रख सकती थी, लोगों को बिना वॉरण्ट के गिरफ़्तार
कर सकती थी. इसके विरोध में पूरा भारत उठ खड़ा हुआ और देश भर में लोग गिरफ्तारियां
दे रहे थे. रोलेट एक्ट का विरोध करने के कारण ब्रिटिश सरकार ने और अधिक नेताओं तथा
जनता को इसी एक्ट के अंतर्गत गिरफ़्तार कर लिया और कड़ी सजाएँ दीं. इससे जनता का आक्रोश
बढ़ गया और लोगों ने रेल और डाक-तार-संचार सेवाओं को बाधित किया. ब्रिटिश सरकार को
यह स्थिति 1857 के गदर की पुनरावृत्ति जैसी लग रही थी, जिसे कुचलने
के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार थे.
इस
आंदोलन के दो नेताओं सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर कालापानी की सजा दे
दी गई. 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर के उप
कमिश्नर के घर पर इन दोनों नेताओं को रिहा करने की माँग की गई किन्तु अंग्रेजों ने
शांतिप्रिय और सभ्य तरीके से विरोध प्रकट कर रही जनता पर गोलियाँ चलवा दीं. इससे तनाव
और बढ़ गया तथा उस दिन जनता ने कई बैंकों, सरकारी भवनों,
टाउन हॉल, रेलवे स्टेशन में आगज़नी की गई. इसी
कड़ी में बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को
अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता
भाषण देने वाले थे. शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था इसके बाद भी लगभग पाँच हजार लोग सभास्थल
जा पहुंचे. जब नेता बाग में भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल
रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया. उन
सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं. नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा. सैनिकों ने बाग
को घेर कर बिना किसी चेतावनी के निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं. दस मिनट
में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं. जलियांवाला बाग तक जाने
या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे. सैनिकों ने उसी
रास्ते को बंद कर रखा था. जनता को भागने का कोई मौका नहीं मिल रहा था. कुछ लोग जान
बचाने के लिए मैदान में बने एक कुएं में कूद गए और देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों
से पट गया.
बाग
में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुंए से ही मिले.
शहर में कर्फ्यू लगे होने के कारण घायलों को इलाज के लिए भी कहीं नहीं ले जाया गया.
लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया. अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है. ब्रिटिश राज के अभिलेख में इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने का
जिक्र है. जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग
लड़के और एक 6 सप्ताह का बच्चा था. अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार
1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक
घायल हुए जबकि आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई
गई. अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने
वालों की संख्या 1800 से अधिक थी.
इस
हत्याकाण्ड की विश्वव्यापी निंदा हुई जिसके दबाव में भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट
एडविन मॉण्टेगू ने 1919 के अंत में इसकी जाँच के लिए हंटर कमीशन
नियुक्त किया. कमीशन के सामने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर
ने स्वीकार किया कि वह गोली चला कर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही करके वहाँ
गया था. उसने एक भयावह सत्य भी बताया कि वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले
गया था जो उस संकरे रास्ते के कारण अन्दर नहीं जा पाई थीं. हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने
पर 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत कर के
कर्नल बना दिया गया और उसे भारत में पोस्ट न देने का निर्णय लिया गया. बाद में उसे
स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापस भेज दिया गया. हाउस ऑफ़ कॉमन्स ने उसका निंदा प्रस्ताव
पारित किया परंतु हाउस ऑफ़ लॉर्ड ने इस हत्याकाण्ड की प्रशंसा करते हुये उसका प्रशस्ति
प्रस्ताव पारित किया. हालाँकि विश्वव्यापी निंदा के दबाव में ब्रिटिश सरकार को उसका
निंदा प्रस्ताव पारित करना पड़ा. सन 1920 में ब्रिगेडियर जनरल
रेजीनॉल्ड डायर को इस्तीफ़ा देना पड़ा. 1927 में प्राकृतिक कारणों
से उसकी मृत्यु हुई. जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी. उन्होंने तय किया
कि वह इसका बदला लेंगे. 13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना
के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ डायर को गोली मार कर मौत के घाट उतार दिया.
आजादी
के लिए लोगों का हौसला ऐसी भयावह घटना के बाद भी पस्त नहीं हुआ बल्कि इस घटना के बाद
आजादी हासिल करने की चाहत लोगों में और जोर से उफान मारने लगी. उन दिनों संचार व्यवस्था
न होने के बाद भी यह खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई. आजादी की चाह न केवल पंजाब,
बल्कि पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर चढ़ कर बोलने लगी. उस दौर के हजारों
भारतीयों ने जलियांवाला बाग की मिट्टी को माथे से लगाकर देश को आजाद कराने का दृढ़
संकल्प लिया.
यदि
किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था तो वह घटना
यह जघन्य हत्याकाण्ड ही था. माना जाता है कि यह घटना ही भारत में ब्रिटिश शासन के अंत
की शुरुआत बनी. सन 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर
मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी. सन 2013 में
ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे. उन्होंने विजिटर्स बुक में
लिखा कि ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डॉ. भीमराव अंबेडकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएं