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पहले दिन समुद्र तट से विवेकानन्द रॉक के दर्शन करने के बाद उसको एकदम करीब से देखने की चाहत और बढ़ गई थी. सूर्यास्त का अद्भुत दृश्य देखने के बाद सूर्योदय देखने की उत्कंठा बढ़ गई. बहरहाल दो दिन की यात्रा, पहले दिन का समुद्र तट का जबरदस्त भ्रमण तन-मन को बाहरी रूप में भले ही न थका सका हो मगर अंदरूनी रूप से ये दोनों आराम चाह रहे थे. ये तो नहीं कहेंगे कि पलंग पर हमारे बिछते ही नींद ने हमें घेर लिया क्योंकि तन-मन भले शांति चाह रहे थे मगर दिमाग अगले दिन की तैयारियों में भागदौड़ करने में लगा हुआ था. सुबह उठना है, सूर्योदय देखना है, फिर रॉक जाना है, बहुत-बहुत सी फोटो निकालना है, कैमरे की बैटरी को फुल्ली चार्ज रखना है, पैर में दिक्कत न हो इसका बंदोवस्त करना है आदि-आदि सोचा-विचारी में दिमाग लगा रहा. दिमाग को शांत न होता देखकर तन-मन ने उसको अकेला छोड़ दिया और नींद की गोद में जा छिपे.
भोर में उठाने के लिए मोबाइल से ज्यादा दिमाग सक्रिय था. इससे पहले कि मोबाइल घनघनाता, दिमाग ने अपनी बत्ती जला दी. आश्चर्य कि हम तो उठे ही बिटिया रानी हमसे ज्यादा चैतन्य रूप में बैठी हुई थी. स्कूल जाने की आनाकानी यहाँ नहीं दिख रही थी. फटाफट हम सब तैयार होकर विवेकानन्द केंद्र परिसर के आखिरी छोर पर चल दिए. पक्की सड़क के दोनों तरफ हरे-भरे पेड़, इधर-उधर नाचते मोर मन को मोह रहे थे. कई-कई सहयात्रियों के साथ चलते-चलते हम लोग भी सूर्योदय स्थल पर पहुँचे. कैमरा, मोबाइल कैमरा, सेल्फी स्टिक सब अपने-अपने काम को अंजाम देने के लिए तैयार थे. ओह गज़ब! मुँह खुला का खुला रह गया. कल दोपहर से शाम तक देखे गए समुद्र से एकदम अलग रूप दिख रहा था समुद्र का. बाँयी तरफ से सूर्य निकलने का संकेत मिल रहा था और दाँयी तरफ विवेकानन्द रॉक मेमोरियल पूरी गरिमा-भव्यता से खड़ा हुआ था. सामने से दूधिया लहरें काली रेत पर बिखर-बिखर जा रही थी. धीरे-धीरे सूर्योदय होने लगा. रजत रश्मियाँ बिखर-बिखर कर समूचे समुद्र को रजतमय बनाने लगीं.
हम सब सम्मोहित से किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति में खड़े हुए थे. बिटिया रानी रेत पर कभी नाम लिखती, कभी घरौंदे बनाती. लहरें आ-आकर इन सबको अपने साथ ले जाती. बिटिया रानी उछल-उछल कर लहरों के साथ अपना तारतम्य जोड़ती दिखती. हम भी मंत्रमुग्ध से कैमरे में सबकुछ कैद कर लेना चाहते थे. सो दाँए-बाँए, इधर-उधर होकर, सारी स्थितियों में समूचे दृश्यों को पकड़ते जा रहे थे. (यहाँ के आनंद के बारे में आगे फिर कभी) यद्यपि समुद्री लहरें, बहुत-बहुत दूर दिखती छोटी-छोटी नौकाएँ, जमीन से आसमान की राह पर चढ़ता सूरज का सौन्दर्य हम सबको रोकने की भरपूर कोशिश कर रहा था मगर विवेकानन्द रॉक मेमोरियल देखने की अभिलाषा के चलते इन सारे दृश्यों से विदा ली.
रेत पर बिटिया की कलाकारी
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जल्दी-जल्दी समूचे काम निपटाकर विवेकानन्द रॉक मेमोरियल के द्वार पहुँच गए. बड़े से जालीदार फाटक को पार करके अन्दर परिसर में प्रवेश किया. कोई छुट्टी नहीं थी फिर भी लगभग 100 लोगों की भीड़ लाइन में लगी दिख रही थी. चैतन्य सेवाव्रतियों (सेवाभाव से विवेकानन्द केंद्र में अपनी सेवाएं देने वाले व्यक्ति), स्वयंसेवकों, वर्दीधारी सहज व्यक्तियों ने मुस्कुराकर स्वागत किया. हमारी शारीरिक स्थिति को देखकर लाइन में लगने की बाध्यता को हमारे ऊपर लागू न करते हुए उस स्थान पर पहुँचने का संकेत किया जहाँ से फैरी पर चढ़ने का इंतजार किया जाता है. हमारी धर्मपत्नी निशा और उनके साथ बितिया रानी भी टिकट लेने के लिए लाइन में लग गई. हम और मित्र सुभाष सुरक्षाकर्मी द्वारा बताये गए स्थान की तरफ चल दिए. जिस बरामदे में लगभग 200 से अधिक लोग बैठे हुए अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे. हम लोगों ने परिसर में बड़े से पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर लोगों को पढ़ने का, आसपास की स्थितियों को जानने-परखने का शौक अंजाम देना शुरू किया. दिमागी और जुबानी क्रियाविधि के साथ-साथ उंगलियाँ कैमरे पर थिरकती रहीं और आसपास के दृश्यों को कैद करती रहीं.
सामान्य टिकट के साथ-साथ विशेष टिकट की भी वहाँ व्यवस्था थी. जिसमें निर्धारित से कहीं अधिक मूल्य चुकाकर लाइन में लगने से बचा जा सकता था. हालाँकि बहुतायत में ऐसे लोग ही थे जो सामान्य टिकट ले रहे थे. विशेष टिकट लेने वालों में विदेशी सैलानी, कुछ अधिकारी जैसे लोग समझ आये. उस बड़े से जालीदार फाटक से अन्दर प्रवेश करने वाले सभी लोगों को उसी पंक्ति में लगना पड़ता. विशेष टिकट लेने के इच्छुक सीधे परिसर में आ पाते थे. इस बीच देखा कि एक स्वयंसेवक लगातार भागदौड़ करने में लगा था. दो-तीन सुरक्षाकर्मियों से मिलकर उसने हर बार हमारी तरफ इशारा किया. कुछ संशय सा लगा तो उसके पास जाकर पूछा कि कोई समस्या है क्या? उसने बताया कि ऐसा कुछ नहीं, बस उन सभी सुरक्षाकर्मियों को ये बताना था कि आप लोगों को अन्दर जाने दें. हम लोगों को समझ आया कि वो अपनी जिम्मेवारी को पूरी तरफ से सम्पादित करने में लगा हुआ है. उधर टिकट की लाइन पीछे से बढ़ती जा रही थी और आगे से घटती जा रही थी. इसी बीच एक सुरक्षाकर्मी से, जो उसी इंतजार करने वाले हॉल की व्यवस्था में संलग्न था, बातचीत से ज्ञात हुआ कि वो सेना से सेवानिवृत व्यक्ति है. झाँसी में सेवारत रहने के कारण उसे भी हम लोगों से विशेष लगाव महसूस हुआ. काफी देर तक बातचीत के बाद आखिरकार हम लोगों की बारी आ गई.
आत्मीय सुरक्षाकर्मी के साथ सुभाष और हम
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आवश्यक सुरक्षा जाँच के बाद, टिकट जाँच के बाद हम लोग तट पर खड़ी फैरी की तरफ बढ़ चले. इससे पहले एक विशेष बात जो वहाँ की व्यवस्था के बारे में पता की वो बड़ी मजेदार लगी. जो व्यक्ति हमारे लिए बड़ी मुस्तैदी से भागदौड़ कर रहा था, उसी से पूछा कि आखिर आप लोग सभी को टिकट लेने की लाइन में क्यों लगा रहे हैं? क्या सभी को अपना-अपना टिकट लेना पड़ता है? तब उसने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है. एक व्यक्ति कितने भी टिकट ले सकता है मगर परिसर के अन्दर भीड़ न फैले, इधर-उधर किसी और काम में न लग जाये इसलिए ऐसा नियम बना दिया है कि सभी को टिकट लेने वाली लाइन में लग्न पड़ेगा. समझ आया कि वाकई एक-एक व्यक्ति का टिकट लेना और उसके साथ आये कई-कई लोगों का परिसर में नाहक टहलना इन स्वयंसेवकों के लिए, सुरक्षाकर्मियों के लिए सिरदर्दी तो हो ही सकता था. अब ऐसे में उन सबका ध्यान सिर्फ लाइन पर ही था.
किनारे खड़ी फैरी ने हम सबको आदर सहित अपने अन्दर स्थान दिया. एकबार में 150 लोगों को लेकर फैरी हिलते-डुलते विवेकानन्द रॉक मेमोरियल की तरफ चल पड़ी. चन्द मिनट में फैरी जब रॉक किनारे लगी तो विशालकाय इमारत सामने खड़ी हाथ फैलाये हमारा इंतजार कर रही थी. सबसे ऊपर फहराता भगवा ध्वज पूरी गरिमा से विवेकानन्द रॉक मेमोरियल को भव्यता प्रदान कर रहा था. सन 1970 में नीले, लाल, काले, हरे रंग के ग्रेनाइट पत्थरों से बना मेमोरियल, जिसका गुंबद 70 फुट ऊंचा है, समुद्रतल से लगभग 20 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. पता चला कि यह स्थान 6 एकड़ के क्षेत्र में फैला है. यह विवेकानन्द जी के 24, 25 और 26 दिसम्बर 1892 को श्रीपद पराई आने तथा गहरे ध्यान-आध्यात्मिक ज्ञान का स्मारक है.
शान से लहराता भगवा ध्वज
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चट्टान पर बने निश्चित रास्ते पर चलते समय चारों तरफ समुद्र की विशालता अद्भुत लग रही थी. हमारे बाँयी तरफ वे लोग कतारबद्ध रूप से खड़े थे जो रॉक से वापस जा रहे थे. हम लोग प्रसन्नता, उत्साह, उमंग में बढ़ते हुए आगे चले जा रहे थे. सामने से आती बहुत तेज हवा जैसे पीछे गिराने के मूड में हो और हम लोग उसी दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने के मूड में. रॉक पर चढ़ने के क्रम में बाँयी तरफ वापस जाने वालों की कतार तथा दाँयी तरफ इमारतें, मेमोरियल का प्रशासनिक भवन, टिकट वितरण केंद्र बना हुआ था. सामान्य से शुल्क वाले टिकट को लेकर हम लोग आगे बढ़ते, वहाँ व्यवस्था देख रहे एक सेवाव्रती श्री राजकुमार जी को अपने आने की सूचना दी. उनसे विवेकानन्द केंद्र पर ही मुलाकात हुई थी और वे बड़े ही प्रभावित हुए थे.
उनसे चन्द मिनट की औपचारिक मुलाकात के बाद आगे बढ़े तो देखा कि मेमोरियल के दर्शन के लिए बनी सीढ़ियों के सहारे ऊपर जाना होगा. इन सीढ़ियों पर चढ़ने से पहले जूते-चप्पल वहाँ बने नियत स्थान पर जमा करने थे. ऊपर बिना जूते-चप्पल के ही जाने की अनुमति थी. ये स्थिति व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए सहज नहीं थी. उस लड़के से, वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी से जूते न उतार पाने की अपनी समस्या बताई तो उसने इसे आवश्यक बताया. भाषाई दिक्कत का सामना यहाँ करना ही पड़ रहा था. किसी तरह उसको अपने परेशानी बताई तो उसने जूतों की तरफ इशारा करते हुए कहा, नो लेदर? हमने उसको बताया कि जूते लेदर के नहीं हैं तो उसने मुस्कुराते हुए इशारों में समझाया कि जूतों पर कपड़ा लपेट लीजिये. अब जूते-चप्पलें एकत्र करता बालक और वो सुरक्षाकर्मी कपड़ा खोजने में लग गए. अंततः एक कपड़ा मिल ही गया और उसे दो हिस्सों में बाँटकर जूतों पर चढ़ा सीढ़ियों की तरफ बढ़ चले. उन लोगों की सहायता, सहजता को देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा.
समुद्र तट से विवेकानन्द रॉक मेमोरियल
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विचारों का प्रभाव किस तरह समूचे वातावरण को परिवर्तित कर देता है, इसे यहाँ आकर महसूस किया जा सकता है. सैकड़ों लोगों की भीड़, तीन-तीन सागरों का गर्जन, लहरों और हवा का रौद्र रूप का समाहित स्वरूप भी स्वर्गिक शांति का आभास करा रहे थे. अब हम ठीक उस स्थान पर खड़े हुए थे जहाँ सामने समुद्र, पीछे समुद्र दाँए हाथ श्रीपद मण्डपम और बाँए हाथ विवेकानन्द मंडपम बना हुआ है. श्रीपद मण्डपम श्रीपद पराई पर स्थित है जिसे पवित्र स्थल माना जाता है. कहा जाता है कि यहीं देवी कन्याकुमारी (देवी पार्वती का रूप) ने अपना पहला कदम रखा था. यहाँ बने मंडपम में एक शिला पर प्रथम पाद के रूप में चरण का चिन्ह आज भी बना हुआ है.
विवेकानन्द मंडपम में प्रवेश के लिए सीढियाँ चढ़कर पहुँचना होता है. इस भवन में प्रवेश करते ही मुख्य द्वार के ठीक सामने स्वामी विवेकानन्द की प्रभावशाली प्रतिमा के दर्शन होते हैं. लगभग चार फुट ऊंचे आधारतल पर कांसे की बनी इस मूर्ति की ऊंचाई साढ़े आठ फुट है. यह इतनी प्रभावशाली है कि इसमें स्वामी जी का व्यक्तित्व एकदम सजीव प्रतीत होता है. किसी तरह से आदेशित हुए बिना लोग गहन शांति में उस प्रभावशाली व्यक्तित्व के दर्शन कर कृतार्थ महसूस करते दिखे. प्रवेश द्वार के ठीक अगल-बगल स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण परमहंस और गुरुमाता के चित्र स्थापित है. ऐसा प्रतीत होता है जैसे विवेकानन्द उन दोनों को निहार रहे हैं और वे दोनों वात्सल्यभाव से उनको आशीष दे रहे हैं. ऐसा माना जाता है कि विवेकानन्द जी तैरकर इस शिलाखंड पर आये और इसी स्थान पर तीन दिन, तीन रात गहरी ध्यान साधना में लीन रहकर खुद को देश सेवा के प्रति समर्पित करने तथा वेन्दान्त दर्शन को समूचे विश्व में प्रसारित करने को तैयार किया. इस भवन में ही मूर्ति के पार्श्व में बने द्वार से नीचे उतर कर ध्यान मंडपम में पहुँचा जा सकता है. ध्यान मंडपम में जाकर ध्यान करने की कोई अनिवार्यता नहीं है. यह स्वेच्छा पर आधारित है. छोटे से अत्यधिक कम रौशनी से ढंके हॉल में द्वार से प्रवेश करते ही सामने दीवार पर चमकता ॐ दिखाई देता है. इसके साथ-साथ अत्यधिक धीमे स्वर में इसका उच्चारण वहाँ आध्यात्मिक उपस्थिति का एहसास करवाता है. हम चारों लोगों ने भी चमकते ॐ के सामने कुछ देर ध्यान की मुद्रा में बैठकर मानसिक शांति का अनुभव किया.
कुछ देर बाद बाहर आकर शांत भाव से चारों तरफ घूम-टहलकर समुद्र के भयावह सौन्दर्य को निहारते रहे. यदि वहाँ से नियत समय पर वापसी का कोई नियम न होता तो संभवतः रात को वहीं रुककर उस भयावह कोलाहल का एहसास किया जाता, जिसे विराट व्यक्तित्व के स्वामी ने अपने में समाहित कर लिया था. मन ही मन विवेकानन्द जी को नमन करते हुए वापस फैरी की राह चल दिए. फैरी समुद्र की लहरों पर मंथर गति से दौड़ने लगी. रॉक मेमोरियल पीछे छूटने लगा. हृदय में फिर एक बार उसे छूने की, दर्शन करने की उत्कंठा जन्मने लगी.
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समुद्र तट से विवेकानन्द रॉक मेमोरियल और तमिल कवि की प्रतिमा |
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तमिल कवि तिरुवल्लुवर |
जहाँ से फैरी पर बैठे थे वहाँ वापस उतरकर भी बाहर जाने का मन नहीं हुआ. बहुत देर तक वहीं किनारे बैठे-बैठे रॉक को निहारते रहे. इसी रॉक के बगल में प्रसिद्द तमिल कवि तिरुवल्लुवर की 133 फुट ऊँची विशालकाय प्रतिमा स्थापित है. अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर के संगम पर स्थापित इस मूर्ति की ऊँचाई तमिल मुक्तक काव्य तिरुक्कुरल के 133 अध्यायों या अथियाकरम का प्रतिनिधित्व करती है. इसी तरह उनकी तीन उंगलियाँ अरम, पोरूल और इनबम नामक तीन विषयों अर्थात नैतिकता, धन और प्रेम के अर्थ को इंगित करती हैं. अंततः वहाँ परिसर से बाहर आकर थोड़ी दी पेटपूजा करने के बाद समुद्रतट पर किनारे आकर फिर बैठ गए. जहाँ से दाँयी तरफ सूर्यास्त का और बाँयी तरफ विवेकानन्द रॉक मेमोरियल का दर्शन किया जा सकता था. सब कुछ अपने हृदय में भर लेने के लिए एकटक देखकर अपनी आँखें बंद कर लीं.
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