नेता
जी सुभाष चन्द्र बोस एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी मृत्यु पर आज तक संदेह बना हुआ
है. तीन-तीन जाँच आयोगों के अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा किसी तरह की ठोस सकारात्मक
कार्यवाही नहीं की गई है. एक तरह की सरकारी मान्यता देने के बाद कि नेता जी सुभाष चन्द्र
बोस की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान
दुर्घटना में हो गई थी, अधिसंख्यक लोगों द्वारा इसे स्वीकार पाना
मुमकिन नहीं हो पा रहा है. नेता जी की कार्यशैली, उनकी प्रतिभा,
कार्यक्षमता, देश के प्रति उनकी भक्ति,
निष्ठा को देखने-जानने के बाद उनके प्रशंसकों ने नेता जी की उपस्थिति
को विभिन्न व्यक्तियों के रूप में स्वयं से स्वीकार किया है. इसका सशक्त उदाहरण गुमनामी
बाबा के रूप में देखा जा सकता है.
नेता
जी की मृत्यु की खबर और बाद में उनके जीवित होने की खबर के सन्दर्भ में सामने आते कुछ
तथ्यों ने भी समूचे घटनाक्रम को उलझाकर रख दिया है. जहाँ एक तरफ नेता जी की मृत्यु
एक बमबर्षक विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने पर बताई गई वहीं ताईवानी अख़बार ‘सेंट्रल डेली न्यूज़’ से पता चला कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान (तत्कालीन फारमोसा) की राजधानी
ताइपेह के ताइहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नही हुआ था. इसी तथ्य पर
‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के भारतीय पत्रकार
(‘मिशन नेताजी’ से जुड़े) अनुज धर के ई-मेल
के जवाब में ताईवान सरकार के यातायात एवं संचार मंत्री लिन लिंग-सान तथा ताईपेह के
मेयर ने जवाब दिया था कि 14 अगस्त से 25 अक्तूबर 1945 के बीच ताईहोकू हवाई अड्डे पर किसी विमान
के दुर्घटनाग्रस्त होने का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है. बाद
में ताईवान सरकार के विदेशी मामलों के मंत्री और ताईपेह के मेयर मुखर्जी आयोग के सामने
भी यही बातें दुहराते रहे हैं. यदि विमान दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु की खबर को
एकबारगी सच मान भी लिया जाए तो उनका अंतिम संस्कार 22 अगस्त को
किया जाना संदेह पैदा करता है. नेता जी की मृत्यु को अफवाह मानने वालों का मानना है
कि वो शव नेता जी का नहीं वरन एक ताईवानी सैनिक ‘इचिरो ओकुरा’
का था जो बौद्ध धर्म को मानने वाला था. बौद्ध परम्परा का पालन करते हुए
ही उसका अंतिम संस्कार मृत्यु के तीन दिन बाद नेता जी के रूप में किया गया. इस विश्वास
को इस बात से और बल मिलता है कि सम्बंधित शव का अंतिम संस्कार चिकित्सालय के कम्बल
में लपेटे हुए ही कर दिया गया, जिससे किसी को भी ये ज्ञात नहीं हो सका कि वो शव किसी
भारतीय का था या किसी ताईवानी का.
ऐसे
में सवाल उठता है कि यदि नेता जी उस विमान दुर्घटना में जीवित बच गए थे तो फिर वे गए
कहाँ थे? ये तथ्य किसी से भी छिपा नहीं है कि अंग्रेज भले
ही भारत देश को स्वतंत्र करना चाह रहे थे किन्तु वे नेता जी को राष्ट्रद्रोही घोषित
करके उनके ऊपर मुकदमा चलाने को बेताब थे. इसके साथ-साथ नेता जी के सहयोगी रहे स्टालिन
और जापानी सम्राट तोजो किसी भी कीमत पर नेता जी को ब्रिटेन-अमेरिका के हाथों नहीं लगने
देना चाहते थे. वे इस बात को समझते थे कि मित्र राष्ट्र में शामिल हो जाने के बाद ब्रिटेन-अमेरिका
उन पर नेता जी को सौंपने का अनावश्यक दवाब बनायेंगे. हो सकता है तत्कालीन स्थितियों
में इस दवाब को नकार पाना इनके वश में न रहा हो. ऐसे में इन सहयोगियों ने एक योजना
के तहत नेता जी को अभिलेखों में मृत दिखाकर उन्हें सोवियत संघ में शरण दिलवा दी हो.
इस तथ्य को इस कारण से भी बल मिलता है कि नेता जी समेट वे तीन व्यक्ति (नेताजी के सहयोगी
और संरक्षक के रूप में जनरल सिदेयी, विमान चालाक मेजर ताकिजावा
और सहायक विमान चालक आयोगी) ही इस दुर्घटना में मृत दर्शाए गए थे जिन्हें सोवियत संघ
में शरण दिलवाई जानी थी.
इसके
बाद भी बहुत से लोगों को विश्वास है कि नेता जी देश की आज़ादी के बाद देश में निवास
करने लगे थे. ऐसे में पुनः वही सवाल खड़ा होता है कि आज़ाद देश में नेता जी को अज्ञातवास
में रहने को किस कारण से मजबूर होना पड़ा? इस
सवाल के जवाब के लिए बहुत से लोग गाँधी, नेहरू के साथ नेता जी
के वैचारिक मतभेद का जिक्र करते हैं. इसका भी संदेह जताया जाता है कि चूँकि ब्रिटेन
नेता जी पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाना चाह रहा था, ऐसे में
संभव है कि आज़ादी के समय किसी अप्रत्यक्ष शर्त या समझौते के तहत नेता जी को ब्रिटेन
को सौंपे जाने पर सहमति बन गई हो. इसके अतिरिक्त नेता जी की लोकप्रियता, उनकी कार्यक्षमता, बुद्धिमत्ता, राष्ट्रभक्ति को नेहरू-गाँधी और उनके समर्थक भली भांति जानते-समझते थे. ऐसे
में वे नहीं चाहते होंगे कि नेता जी वापस आकर देश का नेतृत्व करने लग जाएँ. नेहरू के
कार्यकाल में जिस तरह की लालफीताशाही, घोटालों की संस्कृति आज़ादी
के तुरंत बाद ही उपजी (इसके लिए 1948 में देश के पहले घोटाले
‘जीप घोटाला’ को देखा जा सकता है और घोटाला
करने वाले ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन, जो नेहरूजी के दाहिने हाथ रहे थे) उसे देखकर इस पर यकीन करना संभव ही नहीं
कि नेहरू खुद ही नेता जी बचाए रखना चाहते थे. इस तथ्य को सभी भली-भांति जानते थे कि
नेता जी कठोर और अनुशासित प्रशासनिक क्षमता से परिपूर्ण हैं और गाँधी के शब्दों में
जन्मजात नेतृत्व करने वाले व्यक्तित्व हैं, ऐसे में नेहरू अपनी
सत्ता को गँवाना नहीं चाहते रहे होंगे. नेहरू के अलावा सत्ता का केन्द्रीयकरण कर चुके
लोग भी नहीं चाह रहे थे कि नेता जी का सत्य किसी भी रूप में सामने आये या फिर खुद नेता
जी ही सामने आयें और सत्ता विकेन्द्रित हो जाये. इस मानसिकता के चलते गठित किये गए
शाहनवाज़ आयोग के निष्कर्षों को सांसदों ने, देश की जनता ने ठुकरा
दिया और अंततः साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के बाद 1970 में इंदिरा गाँधी को जस्टिस जी० डी० खोसला की अध्यक्षता में एक दूसरा आयोग
गठित करना पड़ा. इस जाँच आयोग के गठन के सम्बन्ध में भी सरकार की नीयत में खोट ही दिखाई
देती है, जिसको ऐसे समझा जा सकता है कि खोसला नेहरूजी के मित्र
थे; वे जाँच के दौरान ही इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख रहे थे समझा
जा सकता है कि तत्कालीन सरकार नेता जी की मृत्यु पर उठे संशय के बादलों को दूर करने
के लिए कतई संकल्पित नहीं थी. ये तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि जाँच के लिए बना
तीसरा मुखर्जी आयोग कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश के बाद बनाया गया. इसमें सरकार के
हस्तक्षेप को नकारते हुए न्यायालय ने स्वयं ही मुखर्जी को आयोग का अध्यक्ष बना दिया
तो सरकार ने उनकी जांच में अड़ंगे डालना शुरू कर दिए. इसको ऐसे समझा जा सकता है कि
जो दस्तावेज खोसला आयोग को दिये गये थे, वे दस्तावेज तक मुखर्जी
आयोग को देखने नहीं दिये जाते. प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय,
विदेश मंत्रालय, सभी जगह से नौकरशाहों का एक रटारटाया
जवाब आयोग को मिलता कि भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य
कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों
को आयोग को नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त है.
इसके
साथ-साथ भारत सरकार के रवैये के चलते इस प्रकरण की जाँच की सकारात्मकता पर प्रश्नवाचक
चिन्ह लग जाते हैं.
भारत
सरकार ने वर्ष 1965 में गठित ‘शाहनवाज आयोग’ को ताइवान जाने की अनुमति नहीं दी थी.
समूची की समूची जाँच आयोग ने देश में बैठे-बैठे ही पूरी कर ली थी. और शायद इसी का सुखद
पुरस्कार उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करके दिया गया.
1970 में गठित ‘खोसला आयोग’ को भी रोका
गया था किन्तु कुछ सांसदों और कुछ जन-संगठनों के भारी दवाब के कारण उसे ताइवान तो जाने
दिया गया मगर किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था से संपर्क नहीं करने दिया गया.
मुखर्जी
आयोग ने भारत सरकार से जिन दस्तावेजों की मांग की वे आयोग को नहीं दिए गए. अधिकारियों
ने वही पुराना राग अलापा कि एविडेंस एक्ट की धारा 123 एवं 124 तथा संविधान की धारा 74(2) के तहत इन फाइलों को नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त है.
भारत
सरकार ने 1947 से लेकर अब तक ताइवान
सरकार से उस दुर्घटना की जाँच कराने का अनुरोध भी नहीं किया है.
आज
भी हमारी सरकार के ताइवान के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं कायम हो सके हैं. इसके पार्श्व
में नेहरू का, सरकारों का चीन-प्रेम भी हो सकता है, नेता जी का सत्य भी हो सकता है. नेता जी के बारे में उपजे संदेह के बादलों
को पहले तो स्वयं नेहरू ने और फिर बाद में केंद्र सरकारों ने छँटने नहीं दिया. पारदर्शिता
बरतने के लिए लागू जनसूचना अधिकार अधिनियम के इस दौर में भी नेता जी से मामले में किसी
भी तरह की पारदर्शिता नहीं बरती जा रही है. अमेरिका-ब्रिटेन-चीन आदि जैसे विकसित और
सैन्य-शक्ति से संपन्न देशों के भारी दवाब के चलते भी संभव है जाँच अपनी मंजिल को प्राप्त
न कर पाती हो. नेता जी दुर्घटना का शिकार हुए या अपनों की कुटिलता का; नेता जी देश लौटे या देश की सरकार ने उनको अज्ञातवास दे दिया; वे रूस में ही रहे या फिर कहीं किसी विदेशी साजिश का शिकार हो गए. ये सब अभी भी सामने आना बाकी है. ऐसे में सत्यता कुछ भी हो पर सबसे बड़ा सत्य
यही है कि देश के एक वीर सपूत को आज़ादी के बाद भी आज़ादी नसीब न हो सकी. भले ही नेता
जी अपने अंतिम समय में गुमनामी बाबा बनकर रहे और स्वर्गवासी हुए फिर भी उनकी आत्मा
आज भी आज़ादी के लिए भटक रही है, तड़प रही है. ये हम भारतवासियों
का फ़र्ज़ बनता है कि कम से कम आज़ादी के एक सच्चे दीवाने को आज़ाद भारत में आज़ादी
दिलवाने के लिए संघर्ष करें.
जय
हिन्द!!!
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