जिंदगी कई बार बहुत लम्बी लगती है तो कभी बहुत छोटी सी. इसी तरह समय कई बार काटे नहीं कटता और कई बार रोके नहीं रुकता. कुछ ऐसा ही एहसास हुआ आज जबकि चौबीस साल पुराने समय को फिर से आज में उतार लाने की कोशिश की गई. तीन वर्ष की बेहतरीन ज़िन्दगी को कुछ घंटों में जीने की कोशिश की गई. यदि कहा जाये कि किसी अदृश्य टाइम मशीन के द्वारा अतीत को वर्तमान में खड़ा करने का प्रयास किया गया या फिर वर्तमान को उसी अतीत में पहुँचा दिया गया तो अतिश्योक्ति न होगी. सोशल नेटवर्किंग के जरिये एक-एक करके इधर-उधर बिखरे रत्नों को, मोतियों को समेटा-सहेजा जाने लगा. उन सभी को एक-एक करके फिर से खोजा जाने लगा जो समाज में जिंदगी की आपाधापी में कहीं खो गए थे. या कहें कि हमारे आसपास होते हुए भी हमें दिखाई नहीं दे रहे थे क्योंकि हम सभी अपने-अपने परिवार, अपने-अपने रोजगार, अपने-अपने कार्यों में उलझे हुए थे. एक-एक को जोड़ते हुए फिर वही संसार बनाने की एक पहल की गई. किन्तु-परन्तु के बीच पहल की उड़ान शुरू हुई.
हॉस्टल की वो दुनिया अपने आपमें अद्भुत ही कही जाएगी, जहाँ कोई चिंता नहीं, कोई फिकर नहीं, कोई जिम्मेवारी नहीं, कोई बोझ नहीं बस मस्ती ही मस्ती, हुडदंग ही हुडदंग. हॉस्टल से निकल कर अपने-अपने संसार में सिमटे-लिपटे लोगों के मन में लगातार रहा कि क्या कभी अपने पुराने साथियों से मिलना हो पायेगा? क्या उन साथियों के साथ फिर वही मस्ती भरी हरकतें, शरारतें की जा सकेंगी जो उन कभी हुआ करती थी? और भी सवाल उपजते फिर आपाधापी में खो जाते. जिस भविष्य की कभी चिंता नहीं की उसी भविष्य के संवर जाने के बाद भी सवालों के घेरे साथ चलते. आखिर भावनात्मकता कब तक सवालों के बोझ को सहती? कब तक अपने अत्यंत प्रिय साथियों से बिछड़कर दूर रहती. किसी समय में तकनीक से दूर साथियों ने अपने-अपने डायरी के पन्ने अपने-अपने साथियों के पते-ठिकानों से सजाये थे. उन पते-ठिकानों का लगातार बदलना जारी रहा. शुरुआती पत्र-व्यवहार और गर्मजोशी समय के साथ परिवर्तित होती रही. इस परिवर्तन का असर ये हुआ कि सब अपने में सिमट गए. कुछ मिलते रहे, कुछ और दूर होते चले गए.
और फिर अंततः वह दिन आ ही गया जिसका सभी को उस दिन से इंतज़ार था, जिस दिन सभी से दूर हुए थे. हॉस्टल के दिनों को हॉस्टल के साथियों ने फिर से जिंदा कर दिया. जिंदगी की आपाधापी में अपने से भी दूर हो गए लोगों को फिर सबसे जोड़ा गया. इस बार वे जुड़े मगर अकेले नहीं. अबकी उनके साथ समूचे हॉस्टल से जुड़ा उनका परिवार भी, उनकी जीवनसाथी भी, उनके बच्चे भी. एक-एक से मिलते-मिलते, सूत्र बटोरते-समेटते सब फिर सामने नजर आने लगे. तकनीक ने सबको जोड़ने में सहयोग दिया. मिलन की उत्कंठा ने सबको और प्रेरित किया. भावनात्मकता का ज्वार उमड़ने लगा. देखते-देखते वह दिन आ ही गया जबकि सबकी सहमति से सबने आपस में अतीत में जाने का, अतीत को वर्तमान में लाने का निश्चय किया. सम्मिलन केंद्र बना वही स्थान जो कि किसी समय हम सभी की कर्मभूमि हुआ करता था. हम सभी के कदमों से जहाँ हलचल मचा करती थी. हम सभी के कार्यों से जहाँ विचलन हुआ करता था. अबकी हम सब अकेले न थे बल्कि साथ में थे वे लोग जो वर्षों से हम सभी की हॉस्टल की कहानियाँ सुनते आ रहे थे. वे साथ थे जो वर्षों से तत्कालीन फोटो देख-देखकर उस अतीत को वर्तमान की निगाहों से देखना चाहते थे. अपने-अपने जीवनसाथी, बच्चों के साथ सबने पूरी आत्मीयता से अपनी उपस्थिति को दर्शाया.
सम्मिलन के निश्चय से पहले के किन्तु-परन्तु सभी साथियों की सक्रियता, उत्साह, मिलन की तीव्रता देखकर धराशाही हो गए. गले मिलते लोग, उसी बेलौस अंदाज़ में हँसते-बोलते-बतियाते मित्र, फिर से न बिछड़ने देने की नीयत से बारम्बार बाँहों में जकड़ने का अपनापन. सभी के बच्चे, जीवनसाथी बस मुँह खोले आत्मीयता का, अपनेपन का चरम देख रहे थे. शायद उन लोगों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि डेढ़-डेढ़, दो-दो दशकों के बाद मिलते लोग, कुछ परिचित, कुछ अपरिचित चेहरों से मिलते लोग इतनी आत्मीयता दिखायेंगे. भावनात्मकता, अपनत्व के चरम से सराबोर होकर एक दूसरे को सराबोर करते हुए समूचे माहौल को रसमय बना देंगे. सन 1975 से शुरू हॉस्टल यात्रा को कतिपय कारणोंवश विराम लगा सन 2003 में पर तब तक गंगा-जमुना में बहुत सारा पानी बह गया था. काल की धार में बहते रत्न फिर मिले. बहुत से पुराने अनमोल मोतियों ने अपनी उपस्थिति दिखाते हुए अपना उत्साह दिखाया. आश्चर्य लगा कि वर्ष 1988 से लेकर वर्ष 2003 तक के बैच के बहुतायत मित्र सपरिवार समूचे सम्मिलन समारोह में पूरी आत्मीयता, अपनत्व बरसाते रहे. इससे भी अधिक आश्चर्य की बात ये रही कि हॉस्टल के उन बिंदास, बेलौस, बेफिक्र मित्रों से पहली बार मिलते अन्य परिजनों में भी गज़ब का उत्साह था. सबके मन में हॉस्टल देखने की हार्दिक इच्छा, अपने जीवनसाथी के अन्य दूसरे मित्रों के बारे में, उनके परिजनों से मिलने की उत्कंठा दिखी.
हँसी-मजाक, हुल्लड़ करते समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. एकबारगी किसी का ध्यान अपने मोबाइल की तरफ नहीं गया. पूरे दिन लोगों के अपडेट सोशल नेटवर्किंग में देखने को नहीं मिले. ऐसा लग रहा था जैसे लोग वर्तमान में नहीं वरन अतीत की यात्रा कर रहे हों. जर्जर खड़ी बुलंद इमारत को फिर से जिंदाकर अपने उन्हीं दिनों में खो गए हों. उन दिनों की यादें, उस समय के किस्से, सबकी मासूम सी गोपनीयता को उन्हीं के परिजनों के सामने खोलते, लगा ही नहीं कि सदन में उपस्थित कोई भी व्यक्ति वर्तमान में है. हॉस्टल के तत्कालीन नारे, तत्कालीन जयघोष, वैसी ही शरारतें कुल मिलाकर सबको उसी कालखंड में ले गई थीं जहाँ कि वे कभी रहा करते थे. सूरज के उगने से शुरू हुआ मस्ती भरा दिन कब शाम में बदल गया पता ही नहीं चला. शाम के गहराने के साथ शुरू हुआ फिर से उसी वर्तमान में जाने का क्रम जहाँ जिम्मेवारियाँ हैं, दायित्व हैं, कर्तव्यबोध है. फिर शुरू हुआ वही दशकों पुराना क्रम. गले मिलते, हँसते, आँखों को गीला करते और फिर अपनी राह चलते. दशकों पहले के और अब के समय में एक अंतर दिखा. तक के डायरी-पेन से इतर इस बार तकनीक साथ थी. अगली बार मिलने का निश्चय साथ था. इस वादे के साथ कि हर वर्ष सबका मिलना निश्चित है, हम सभी अतीत की कुछ घंटों की यात्रा के बाद वर्तमान में लौट आये.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - राहुल सांकृत्यायन जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबिखरे मोती, नये मनकों के साथ यों ही जुड़ते रहें -माला बढ़ती रहे ,पुनः-पुनः सँवरती रहे !
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