उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य वेतन आयोग की
सिफारिशों को मंजूरी देकर चुनावी दाँव चल दिया है. इस निर्णय से राज्य के सत्ताईस
लाख कर्मियों को लाभ पहुँचेगा. वेतन आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिए जाने के
बाद अब राज्य कर्मियों को और पेंशनरों को केन्द्रीय कर्मियों की तरह सातवें वेतन
आयोग का लाभ मिलने लगेगा. चुनावों की आहट देखते हुए राज्य सरकार ने वेतन वृद्धि को
इसी वर्ष जनवरी से स्वीकार किया है जबकि नकद रूप में यह लाभ अगले माह जनवरी से
मिलने लगेगा. यह स्वाभाविक सी प्रक्रिया है कि समय-समय पर बने वेतन आयोगों द्वारा
देश की स्थिति, मंहगाई और अन्य संसाधनों के सापेक्ष वेतनमान का निर्धारण किया जाता
रहा है, जिसके आधार पर केन्द्रीय कर्मियों के साथ-साथ राज्यों के कर्मचारियों के
वेतन में भी वृद्धि होती रही है. सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मानने के बाद
उत्तर प्रदेश के कर्मियों में औसतन 14.25
प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिलेगी. इस वेतन वृद्धि के बाद राज्य में
न्यूनतम वेतन 18000 रुपये हो जायेगा, जो अभी तक 15750
रुपये है. इसी तरह उच्चतम वेतन 2.24 लाख रुपये
हो जायेगा, जो अभी 79000 रुपये है. उच्चतम वेतन का लाभ राज्य
के पीसीएस उच्च संवर्ग को प्राप्त होगा.
राज्य कर्मियों के लिए ये ख़ुशी का पल हो सकता है कि
उनके लिए सरकार ने राज्य वेतन आयोग की सिफारिशों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर
लिया. नए वेतन का नकद लाभ भी अगले माह से मिलने लगेगा. इस ख़ुशी के साथ-साथ सामाजिक
रूप से बढ़ती आर्थिक विषमता की तरफ किसी का ध्यान शायद नहीं जा रहा होगा. एक पल को
रुक कर विचार किया जाये तो स्थिति में घनघोर असमानता नजर आती है. समाज का एक व्यक्ति
को राज्य कर्मचारी के रूप में अंतिम पायदान पर खड़ा हुआ है वो बीस हजार रुपये का
वेतन भी प्राप्त नहीं कर पा रहा है और उसी समाज का उच्च संवर्ग कर्मी उससे दस गुने
से अधिक वेतन प्राप्त कर रहा है. समाज में तमाम सारी विषमताओं के साथ-साथ आर्थिक
विषमतायें सदैव से प्रभावी रही हैं. इन विषमताओं ने हमेशा व्यक्ति व्यक्ति के मध्य
प्रतिस्पर्द्धा पैदा करने के साथ-साथ वैमनष्यता भी पैदा की है. कमजोर वर्ग को
हमेशा से ये लगता रहा है कि सुविधासंपन्न लोगों ने उनके अधिकारों को छीना है, उनके
हक़ को मारा है. ऐसी सोच, मानसिकता बहुत हद तक वेतनभोगियों में भी देखने को मिलती है.
छठें वेतन आयोग की सिफारिशें स्वीकार किये जाने के बाद से ऐसी सोच खुलेआम देखने को
मिली थी. निचले स्तर के और उच्च स्तर के कर्मियों के मध्य वैचारिक टकराव देखने के
साथ-साथ वैमनष्यपूर्ण तकरार तक देखने को मिली थी. अब जबकि वेतन का अंतर बहुत बड़ा
हो गया है तब वैमनष्यता, टकराव का स्तर और बड़ा हो जाये, इससे इंकार नहीं किया जा
सकता है.
विगत कुछ समय से, जबसे वैश्वीकरण की, भूमंडलीकरण की
बयार चली है, आर्थिक गतिविधियों के द्वारा समूचा जीवन संचालित होने लगा है, समाज
अपने आपमें एक बाजार बनकर रह गया है तब सरकारों ने नागरिक हितों को भी आर्थिक स्तर
पर संचालित करना शुरू कर दिया है. नागरिकों को मिलने वाले तमाम लाभों का निर्धारण
लोगों के आर्थिक स्तर के आधार पर होने लगा है. एक निश्चित आय से नीचे के नागरिकों
के लिए सरकारें सदैव से कार्यशील रही हैं किन्तु जिस तरह से अब वेतन में जबरदस्त
अंतर देखने को मिला है वो न केवल मानसिक अशांति पैदा करेगा वरन सामाजिक विद्वेष का
कारक भी बन सकता है. वैश्वीकरण के दौर में जीवन, समाज, व्यक्ति भले ही बाजार के
हाथों में खेलने लगा हो किन्तु सरकारों को अपने आपको बाजार बनने से बचना चाहिए.
उनका दायित्व अपने कर्मियों को वेतन देना मात्र नहीं है. सरकारों का उत्तरदायित्व अपने
नागरिकों को सुरक्षा, उनके विकास,
उन्नति का भरोसा दिलाना तो है ही साथ ही
उसके लिए अवसर उपलब्ध करवाना भी है. ये सरकारें चाहे केन्द्रीय स्तर की हों अथवा राज्य
स्तर की, इन सभी को नागरिक हित
में ही कार्य करने होते हैं. वर्तमान सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को जिस तरह से
केन्द्रीय स्तर पर और अब राज्य स्तर पर स्वीकार किया गया वो समस्त कर्मियों को
लाभान्वित भले करता हो किन्तु मानसिक रूप से, सामाजिक रूप से बहुत से कम कर्मियों
को लाभान्वित करेगा. वेतन का विशाल अंतर मानसिक अशांति बढ़ाने के साथ-साथ सामाजिक
विद्वेष को बढ़ाएगा, आपसी वैमनष्यता को बढ़ाएगा, न्यूनतम वेतनभोगी कर्मियों की
कार्यक्षमता को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा.
बहुत ही उम्दा .... sundar lekh .... Thanks for sharing this nice article!! :) :)
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