बहुप्रतीक्षित यात्रा उरई से बस से शुरू हुई जो
झाँसी पहुँच ट्रेन में बदल गई. कई वर्षों से लगातार योजना बन रही थी, कन्याकुमारी
जाने की. उद्देश्य कन्याकुमारी घूमना नहीं, दक्षिण के दर्शनीय स्थल देखना नहीं वरन
पावन शिला के दर्शन करना था. वो पावन शिला जिसे हम सभी ‘विवेकानन्द रॉक मेमोरियल’
के नाम से जानते हैं. उस पावन शिला का स्पर्श करना था जहाँ देश के विराट
व्यक्तित्व स्वामी विवेकानन्द ने तीन दिन, तीन रात ध्यान कर तीन सागरों के शोर को
अपने में समाहित कर लिया था. उस स्थान को नमन करना था जहाँ ध्यानस्थ हो स्वामी
विवेकानन्द ने वैश्विक सन्देश के लिए खुद को तैयार किया था. विवेकानन्द जी ने
कन्याकुमारी तट से लगभग 500 मीटर दूर समुद्र में स्थित शिलाखंड पर पहुँचकर अपने आपको देश सेवा के प्रति
समर्पित करने और वेन्दान्त दर्शन को समूचे विश्व में प्रसारित करने का निश्चय किया.
जब भी स्वामी विवेकानन्द की चर्चा होती, जब भी विवेकानन्द रॉक की बात छेड़ी जाती मन
में कौतूहल उठता कि आखिर स्वामी जी ने वही स्थान क्यों चुना? आखिर अपने आपको
ध्यानस्थ करने और वैश्विक सन्देश के लिए तैयार करने के लिए तीन समुद्रों से घिरा
स्थान ही क्यों चुना?
बहरहाल कई-कई सवालों को साथ लेकर, हर्ष-उल्लास से
सराबोर हमें लेकर ट्रेन झाँसी से कन्याकुमारी के लिए दौड़ पड़ी. ट्रेन को भी इसका
एहसास था कि हम लोग घूमने की दृष्टि से नहीं वरन कुछ अर्जन की दृष्टि से
कन्याकुमारी जा रहे हैं, सो वो भी अपनी पूरी रफ़्तार से भागती हुई जल्द से जल्द
कन्याकुमारी को छूने की कोशिश में लगी थी. दोपहर बाद दो बजे ट्रेन के चलने से पहले
लग रहा था कि झाँसी से 42 घंटे की यात्रा कहीं बोझिल न हो किन्तु ऐसा हुआ नहीं. इसका कारण एक तो
अपने मित्र सुभाष के साथ वैचारिक प्रतिद्वंद्विता का चलते रहना रहा. इसके अलावा
पूरे सफ़र में एक से बढ़कर एक नजारों ने कैमरे को खामोश नहीं बैठने दिया. गहन रात को
छोड़कर बाकी समय कैमरा बाहरी दृश्यों को पकड़-पकड़ अपने में कैद करता रहा. यात्रा का
पहला दिन और पहली रात गुजरने के बाद जब कन्याकुमारी पास आता दिखा तो मन और अधिक
प्रफुल्लित होने लगा. थकान जैसा कोई एहसास न दिल पर था, न दिमाग पर, न देह पर.
आखिरकार ट्रेन ने हमारी मनोभावनाओं को समझते हुए अपने नियत समय से हम सबको कन्याकुमारी की शीतल हवाओं के बीच खड़ा कर दिया. उमड़ते-घुमड़ते बादलों के साथ-साथ चलते हुए हम लोगों ने जब कन्याकुमारी की पावन भूमि का स्पर्श किया तब देश भर में तिरंगा लहराया जा रहा था. जबरदस्त प्राकृतिक हरियाली से सजा-संवरा रेलवे स्टेशन भी स्वतंत्रता दिवस की तैयारी में तत्पर दिखा. हम लोगों ने भी अपने राष्ट्रीय प्रतीक को नमन कर विवेकानन्द केंद्र की तरफ कदम बढ़ा दिए. विवेकानन्द रॉक के साथ-साथ विवेकानन्द केंद्र को देखने, वहाँ के लोगों से मिलने, सेवाव्रतियों से कुछ सीखने, वहाँ के प्रसिद्द पुस्तकालय से कुछ ज्ञानार्जन करने की लालसा भी मन में छिपी थी. इसी लालसा के वशीभूत रुकने का इंतजाम किसी होटल के बजाय विवेकानन्द केंद्र पर ही किया. सुबह की शीतल हवाओं और आनंदित करने वाले मौसम के साथ चलते हुए हमारा ऑटो जब विवेकानन्द केंद्र के परिसर में पहुँचा तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. समूचा परिसर एक अलौकिक शक्ति से संचालित लगा. अपार शांति, सहजता, सरलता अपने आप वहाँ दिखाई दी. रुकने की व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए बने रिसेप्शन पर दत्तचित्त महिला सौम्य मुस्कान और सहज बातचीत के साथ अपना कार्य करने में लगी थी. यद्यपि भाषाई समस्या बार-बार सामने आ रही थी मगर जब कार्य को संपादित करने के पीछे की भावना हार्दिक हो, आत्मीय हो तो सभी बाधाएँ अपनेआप दूर हो जाती हैं.
विवेकानन्द रॉक पहुँचने की अतिशय उत्सुकता ने दो दिन
की यात्रा सम्बन्धी थकान को तन-मन पर हावी नहीं होने दिया था. जल्दी-जल्दी
नित्यक्रियाओं से निवृत होकर पुनः ऑटो की सेवाओं का लाभ उठाते हुए रॉक दर्शन के
लिए सम्बंधित स्थान पर पहुँच गए. जैसा कि रिसेप्शन पर हम लोगों को भारी भीड़ के
बारे में आगाह किया गया था, ठीक वैसा या कहें कि उस अनुमानित भारी भीड़ से अधिक भीड़
वहाँ देखने को मिली. केंद्र से लगभग दो किमी बाद बने चौराहे से बाँए मुड़कर
विवेकानन्द रॉक और कन्याकुमारी मंदिर के लिए जाया जा सकता है. चौराहे से आगे ऑटो न
जाने देने की बाध्यता के चलते हम लोग वहीं उतर गए. सड़क पर उतरते ही मानव श्रृंखला
बनी दिखाई थी. समझ नहीं आया कि इतनी बड़ी संख्या में लोग कतारबद्ध क्यों खड़े हुए
हैं? हम लोग विवेकानन्द रॉक देखने की उत्सुकता में सड़क के ठीक सामने फैले विशाल
समुद्रतट को नजरअंदाज कर चुके थे. रॉक पहुँचने की रौ में न उस कतार पर ध्यान था, न
लोगों के अनुशासित ढंग से खड़े होने पर, न आसपास सजी दुकानों पर. एक किमी नहीं तो लगभग
एक किमी की दूरी तय करने के बाद हम लोग उस द्वार तक पहुँच गए जो विवेकानन्द रॉक
मेमोरियल जाने के लिए मिलने वाले टिकट का प्रवेश द्वार था. देखा तो वो
मानवश्रृंखला वहाँ तक बनी हुई थी. वहाँ तक क्या उस परिसर के अन्दर तक, जहाँ टिकट
वितरक केंद्र बना था वहाँ तक, सिर्फ काले सिर दिखाई दे रहे थे. तैनात
सुरक्षाकर्मियों से पता चला कि स्वतंत्रता दिवस की छुट्टी होने के कारण इतनी भीड़
है. अब समझ आया कि चौराहे से जो कतार हमारे साथ-साथ यहाँ तक चली आई वो किसी मंदिर
के लिए नहीं बल्कि विवेकानन्द रॉक मेमोरियल के दर्शन के लिए लगी हुई है. टिकट
वितरण की व्यवस्था का, तट से मेमोरियल तक पहुँचने की व्यवस्था का पता किया तो
मालूम हुआ कि फैरी एकबार में 150 लोगों को ले जाती है. लाइन में खड़े लोगों की संख्या का अनुमान लगाने के
बाद एहसास हुआ कि आज मेमोरियल जाना सिर्फ उसे छूकर लौटने जैसा होगा, मन भरने जैसी
कोई बात होगी नहीं. मन मारकर हम लोग बाजार का, वहाँ सजी दुकानों का आनंद उठाते
हुए, चश्मे, सीपी, शंख, मालाएँ आदि बेचते लोगों से जूझते-बचते हुए समुद्रतट पर आ
पहुँचे.
समुद्रतट के किनारे पहुँच लहराते भगवा ध्वज ने आकर्षित किया. अत्यधिक भीड़ होने के बाद भी स्व-अनुशासन वहाँ देखने को मिल रहा था. उछलती-कूदती लहरों के बीच पहुँचकर लोग आनंदित हो रहे थे मगर किसी तरह का कोई दुर्व्यवहार देखने को नहीं मिल रहा था. युवाओं के अपने ग्रुप, लड़कियों के अपने ग्रुप, नवविवाहित युगल, अविवाहित युगल, दोस्त-यार, बुजुर्ग, बच्चे सब के सब अपने आप, अपने में अनुशासित से सामुद्रिक क्रीड़ा करने में मगन थे. ऐसा लग रहा था जैसे किसी को किसी दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है. मौजों के साथ मौज लेने वाले अपने काम में, शांति से समुद्र को ताकने वाले अपने काम में, सामान बेचने वाले अपने काम में तल्लीनता से मगन थे. तीन सागरों की लहरों को गिनते-गिनाते, कैमरे में कैद करते-करते दिन कब अँधेरे में बदल गया पता ही नहीं चला. समुद्रतट के किनारे बैठकर ललचाई नजरों से रॉक मेमोरियल को निहारते, उसके बगल में बनी विशालकाय मूर्ति को निहारते. मन ही मन खुद को तसल्ली देते कि चलो भीड़ के कारण आज नहीं तो कल सही पर उस पावन शिला को स्पर्श तो करेंगे ही.
एक तरफ सूर्यास्त की लालिमा के साथ हरे-काले से लाल रंग में परिवर्तित होता समुद्र अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था वहीं दूसरी तरफ विवेकानन्द रॉक मेमोरियल में चमकता प्रकाश उसकी गरिमा को और बढ़ा रहा था. हम लोग तो नहीं थके थे मगर लगने लगा था कि समुद्रतट से रॉक मेमोरियल की, समुद्र की, लहरों की, लहरों के साथ उछलती-कूदती डोंगियों-नौकाओं की फोटो खींचते-खींचते कैमरा थक गया था. लो बैटरी के सिग्नल के द्वारा उसने खुद को कभी भी पूरी तरह से बंद हो जाने का संकेत कर दिया था. रात गहराती जा रही थी पर पल-पल बदलते सामुद्रिक स्वरूप को और निहारने का लोभ छोड़ा भी नहीं जा रहा था. विवेकानन्द केंद्र पर पहला दिन होने के कारण उनके नियम-कायदों की भी समुचित जानकारी नहीं थी. इस कारण मन मारते हुए, समुद्री लहरों को पीछे छोड़ते हुए अनमने भाव से केंद्र के लिए चल पड़े. इतनी तसल्ली देते हुए कि महज 10-12 घन्टों के बाद पुनः इसी जगह आना तो है ही, विवेकानन्द रॉक मेमोरियल से समुद्र के नज़रों को कैद करना तो है ही, हम लोग वापस केंद्र आ गए.
बिस्तर नींद के आगोश में ले जाने की बजाय अलस्सुबह
उठाने को बेताब थे. केंद्र परिसर में ही सनराइज पॉइंट होने के कारण हम लोग किसी भी
कीमत पर उसे छोड़ना नहीं चाह रहे थे. इस कारण सोने से अधिक चिंता सुबह 4 बजे उठने की होने लगी. बहरहाल
स्वस्थ मन से सबकुछ देखने के लिए सोना आवश्यक था, सो जल्दी-जल्दी करते हुए भी 12
से अधिक बज गए. समुद्र किनारे होते सूर्योदय को देखने (और वो भी
विवेकानन्द केंद्र परिसर से ही) की उत्सुकता में हम सबने खुद को नींद की गोद में
धकेला और सुबह का इंतज़ार करने लगे.
(सभी चित्र स्वयं निकाले गए हैं)
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 09 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुन्दर वर्णन सुन्दर चित्र ।
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