06 अगस्त 2016

बलात्कार की जड़ समझने की जरूरत



महिलाओं के साथ-साथ मासूम बच्चियाँ भी यौन शोषण का शिकार होने लगी हैं. दिनों-दिन बढ़ती बलात्कार की घटनाएँ समाज में आ रहे मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन का दुष्परिणाम हैं. यौन-कुंठा का इतना वीभत्स रूप शायद की कभी देखने को मिला हो. नैशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार देश में प्रतिदिन 50 महिलाओं की इज्जत लूट ली जाती है, 480 महिलाएँ छेड़खानी का शिकार होती हैं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 50 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. लगभग 25 प्रतिशत महिलाएँ स्पर्श जैसे उत्पीड़न की पीड़ा सहती हैं. एक अध्ययन के अनुसार 80 प्रतिशत बलात्कार के मामले 10 से 30 वर्ष की युवतियों के साथ होते हैं. चौंकाने वाला तथ्य यह है कि 10 वर्ष कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले भी 4 प्रतिशत पाये गये हैं, यह दिखाता है कि यौन पिपासा हमारे समाज को कितना पतित कर चुकी है.

पहनावे की आधुनिक बिडम्बना के बीच सेल्युलाइड पर्दे ने सब कुछ उघाड़कर रख दिया है. बिखरती रंगीनियों ने, टी०वी० की नग्नता ने एक कुंठित वर्ग को जन्म दिया है. आज अश्लीलता घर-घर परोसी जा रही है, मोबाइल से हर हाथ में अश्लीलता सुशोभित हुई है. पुरुषों के उपभोग की वस्तु हो, बच्चों की आवश्यकता सम्बन्धी हो या फिर महिलाओं की जरूरत, नारीदेह दर्शन बिना किसी भी तरह का विज्ञापन पूरा नहीं होता है. अधोवस्त्रों के विज्ञापन हों, सौन्दर्य प्रसाधनों के विज्ञापन हों, गर्भनिरोधकों के विज्ञापन हों, पेयपदार्थों के विज्ञापन हों, बॉडी स्प्रे हो सबका प्रस्तुतीकरण अश्लीलता से भरपूर दिखता है. विज्ञापनों के अलावा फिल्मों, धारावाहिकों, म्यूजिक एल्बम, लाइव शो यहाँ तक कि कॉमेडी शो तक में महिलाओं को अशालीन, अर्द्धनग्न रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है. उनकी भावभंगिमा, गीतों के बोल, आपसी बातचीत, संवाद अदायगी कहीं न कहीं शारीरिकता का बखान करती दिखती है. जिससे आभास होता है कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य सेक्स की प्राप्ति है. इससे कामुक प्रवृत्ति के व्यक्ति को नारीदेह के बिना, सेक्स के बगैर अपना जीवन अधूरा सा लगने लगता है. ऐसी स्थिति में वह अपनी यौनेच्छा को पूरा करने के लिए किसी न किसी माध्यम की तलाश करता है. उसकी इस यौनेच्छा का शिकार असहाय, कमजोर महिला वर्ग होता है. बच्चियाँ ऐसे लोगों को सबसे आसान शिकार जान पड़ती हैं. महिलाओं के साथ शारीरिक संबंधों की कठिनाई अथवा बाधा उत्पन्न होने पर इसका विकृत रूप सामूहिक बलात्कार, मासूम बच्चियों के शोषण के रूप में सामने आ रहा है. आज आधुनिकता के नाम पर सेक्स को प्रमुखता से स्वीकार करके देह की नुमाइश, खुलेआम शारीरिक सम्बन्धों की ओर मुड़ने, विवाहपूर्व-विवाहेतर शारीरिक सम्बन्ध बनाने की संस्कृति जिस तेजी से फ़ैल रही है वह आधुनिक उच्छृंखल महिला-पुरुष को तो दैहिक आवश्यकता की पूर्ति के रास्ते उपलब्ध करवा रही है किन्तु यौन-कुंठित वर्ग को यौन अपराधोन्मुख कर रही है.

हमें स्वयं तय करना है कि हमारे लिए प्राथमिकता क्या है, देह-दर्शना वस्त्र, यौनेच्छा को बढ़ाने वाली स्थितियां अथवा सुरक्षित समाज, सुरक्षित बच्चियां, सुरक्षित महिलायें? असल सुधार तो इस प्राथमिकता को निर्धारित करने के बाद ही होगा. सुरक्षा अपने हाथ में है क्योंकि विकृत मानसिकता, यौन-कुंठित व्यक्ति सिर्फ बच्ची के लिए नहीं, महिलाओं के लिए नहीं पूरे समाज के लिए घातक है. महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों को रोकने अथवा कम करने का उपाय कानूनी दृष्टि से ज्यादा सामाजिक और सांस्कृतिक है. इसके लिए नारीदेह की कामुक छवियों के चित्रण, प्रदर्शन आदि पर रोक लगे. देश भर में पोर्न साइट्स पर पूर्णरूप से प्रतिबन्ध लगाया जाए. यौन शिक्षा को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल करने के साथ-साथ बच्चियों को शारीरिक सुरक्षा सम्बन्धी प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से विद्यालयों में दिया जाना चाहिए. वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देकर यौन-कुंठित व्यक्तियों की यौनेच्छा शमन की व्यवस्था होनी चाहिए.

बलात्कार के मूल में यदि नारीदेह की कामुक छवि का प्रदर्शन है तो संस्कृति से विमुख होना भी एक अन्य कारण हो सकता है. भारतीय संस्कृति के गौरवमयी आँचल की छाँव को त्यागकर मांसलता, अश्लीलता की चकाचौंध भरी धूप को स्वीकारने से रिश्तों की गर्माहट, भावनाओं की पवित्रता को सुखाने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त होने वाला नहीं और इसका खामियाजा हमारी बेटियों को उठाना पड़ रहा है. आखिर महिलाओं को भी समझना होगा कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक पुत्र एवं अनुरक्षण अधिनियम, बाल विवाह प्रतिरोध अधिनियम, मातृत्व हितलाभ अधिनियम, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी एक्ट, दहेज निरोध अधिनियम, अनैतिक व्यापार अधिनियम, परिवार न्यायालय, महिलाओं के प्रति अभद्र प्रस्तुतीकरण अधिनियम जैसे अनेक अधिनियमों के अलावा लड़कियों का अल्पायु में विवाह प्रतिबन्धित करने, तलाक लेने, पिता, पति और पुत्र की संपत्ति पर अधिकार पाने का हक, समान अवसर, कार्यस्थल पर सुरक्षा, मातृत्व अवकाश का अधिकार आदि महिलाओं के देह-विमर्श का परिणाम नहीं हैं. 

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