जुलाई माह आते ही सरकारी विद्यालयों के साथ-साथ निजी विद्यालयों में भी स्कूल
चलें हम जैसे कार्यक्रमों का आयोजन होने लगता है. वैसे निजी स्कूल स्कूल भरने का
कार्य अब तो अप्रैल में करने लगे हैं, इसके बाद भी सरकारी गुडबुक में बने रहने के
लिए, अधिकारियों की निगाह में बने रहने के लिए जुलाई में ऐसे सरकारी आयोजनों को वे
भी करने लगते हैं. ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों से सम्बंधित समारोहों का आयोजन किया
जाता है. रैलियाँ निकाली जाती हैं. नारेबाजी होती है. भाषण चलते हैं और अंत में
सबकुछ ज्यों का त्यों हो जाता है. देखने में आ रहा है कि बच्चों के प्रति वास्तविक
क्रियाशीलता, धरातलीय जिम्मेवारी
का निर्वहन करने से सरकारें बचती हैं, प्रशासन भी बचता है, सामाजिक
संस्थाएं-व्यक्ति भी बचते हैं. इस बचने-बचाने के दौर में अब जिस तरह से सक्रियता
दिखने लगी है वो कई बार आशान्वित भी करती है. शिक्षा सम्बन्धी अधिकार के आने के
बाद लगने लगा है कि देश के सभी बच्चे अब आपको कुछ सालों बाद शिक्षा लेते दिखाई पड़ेंगे.
शिक्षा लेने सम्बन्धी अधिकार के अनुसार देश में 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निशुल्क
शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है. पहल अच्छी है और इस अच्छी पहल को अच्छा ही बने
रहना चाहिए.
इससे पहले भी सरकारी स्तर पर बहुत ही अच्छे-अच्छे प्रयास हुए हैं जिसमें बच्चों
के लिए बेहतर तरीके खोजे गये थे. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की कम से कम
होती जा रही संख्या को देखकर सरकार ने मिड डे मील जैसा कार्यक्रम लागू किया. यदि
किसी भी स्कूल की अंदरूनी स्थिति को देखा जाये तो सरकारी दावों की पोल खुल जाती है.
बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों की घनघोर कमी है और जहाँ शिक्षक हैं भी वे या तो स्कूल
से सम्बन्धित कागजातों को भरने में लगे रहते हैं या मिड डे मील को पूरा करवाने के लिए लगे रहते हैं
अथवा अपने उच्चाधिकारियों की खुशामद में ही कार्य सिद्ध किये रहते हैं. बच्चों की
शिक्षा के प्रति सरकार, प्रशासन अथवा समाजसेवी संगठन कितने सजग हैं इसे इस बात से
देखा-समझा जा सकता है कि आज भी बच्चों को कूड़ा बीनते, भीख मांगते, होटलों-ढाबों में काम करते, मिस्त्री के रूप में काम करते देखते हैं. पढ़ने-खेलने की उम्र में ये नौनिहाल अपना
और अपने परिवार का भरण-पोषण करने की जुगाड़ में लगे रहते हैं. सरकारें, प्रशासन इस बात को जानते हुए भी अनभिज्ञ बना
रहता है. शिक्षा देने के लिए तमाम जद्दोजहद की जाती है मगर उसका जमीनी स्वरूप तैयार
नहीं किया जाता है. शिक्षा साधारण-सामान्य विद्यालयों से निकल कर कॉन्वेंट की शरण में
पहुँच चुकी है. ज्ञान कम कीमत वाली किताबों के स्थान पर बड़े-बड़े प्रकाशकों की मँहगी
रंगीन किताबों-सीडी में छिपा दिया गया है. एकरूपता की बात में अब सहज गणवेश न होकर
मंहगे-मंहगे डिजायनर वस्त्रों को स्थान मिल रहा है. ऐसे में शैक्षिक संस्थाओं द्वारा
भी वास्तविक रूप से बच्चों के हितार्थ कार्य नहीं किया जा रहा है. ले-देकर बचे हुए
सरकारी संस्थान ही खानापूर्ति सी करते दिख रहे हैं. अध्यापकों की भीड़ और खालीपन के
मध्य चंद लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं किन्तु वे भी मिड-डे-मील सहित अन्य
कागजी कार्यों के भंवरजाल में फँस कर रह गए हैं.
ये ध्यान रखना होगा कि जुलाई माह भले ही स्कूल चलो अभियान के लिए जाना जाने
लगा हो किन्तु महज इतने से ही बच्चों के प्रति सामाजिक जिम्मेवारी कम नहीं हो जाती.
सरकारी प्रयास महज खानापूरी के लिए न हों, हम लोगों के काम भी भेदभाव से युक्त न हों, बच्चों के हाथों में चंद सिक्के रखकर हम उनका भला नहीं
कर रहे हैं, बच्चों को वास्तविक
मदद के द्वारा उनको आगे बढ़ने के रास्ते खोलें. जिस दिन हम बच्चों के परत सकारात्मक
सोच के साथ आगे बढ़ेंगे उसी दिन से सभी बच्चे स्वतः ही स्कूल जाने लगेंगे.
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